नाम ही पहचान है…27.07.2025

बुनियादी चिन्तन : बालिका से वामा तक ( स्वदेश : दूसरा स्तंभ ) स्वदेश : दूसरा स्तंभ नाम केवल पुकारने का माध्यम नहीं होता, वह पहचान की पहली शिला है। लेकिन स्त्री के संदर्भ में नाम-शिला बार-बार हिलाई जाती है। कभी पिता के कुलनाम से काटकर, तो कभी पति के कुल में विलीन कर। "नाम ही पहचान है….!" यह वाक्य स्त्री के लिए सवाल भी है और संघर्ष भी। जब एक बालिका जन्म लेती है, तो उसका पहला संवाद संसार से रोने के माध्यम से होता है। यह रोना भाषा का आदिम रूप है, एक ऐसा स्वर, जो दीवारों से टकराकर सामाजिक उद्घोषणा बन जाता है। यह स्वर बालिका की अस्मिता की पहली दस्तक है, जो किसी नाम में ढलकर उसके 'स्व' का पहला वस्त्र बनता है। लेकिन यह नाम, पिता के कुलनाम के बिना, अधूरा रह जाता है। जानबूझकर बालिका को असंपूर्ण पहचान में ढाल दिया जाता है। नाम केवल एक उच्चारण नहीं, व्यक्ति की आत्मछवि, आत्मविश्वास और सामाजिक स्थिति का दर्पण होता है। भारतीय परंपरा में नामकरण का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। वेदों में कहा गया है: “नाम्ना वा ऋषयो भवन्ति”। लेकिन यही परंपरा जब स्त्री के संदर्भ में आती है त...