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Showing posts from August 16, 2025

उजास से भरी कृष्ण की आँखें

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   कृष्ण जन्माष्टमी 16 अगस्त 2025 कहा जाता है कि आँखें मन का दर्पण होती हैं। शब्दों से कहीं अधिक बोलती हैं। मनुष्य की गहरी संवेदनाओं और अनुभूतियों को उजागर कर बयान कर देती हैं मन के भीतर की सच्चाई। मनोविज्ञान में यह सत्य माना गया है कि अवचेतन मन जिन भावनाओं को छुपा नहीं पाता, वे अनायास ही आँखों में आ बसता है। क्रोध, प्रेम, ईर्ष्या, पीड़ा या उल्लास, सबसे पहले आँखें ही उनका खुलासा कर देती हैं। इसी कारण कभी–कभी बिना कुछ कहे भी व्यक्ति अपनी स्थिति दूसरों के सामने न चाहते हुए प्रकट कर देता है। यदि हम भारतीय दर्शन की ओर देखें तो यह विचार और भी गहराई से भरा दिखता है। कृष्ण का चरित्र इस बात का जीवंत उदाहरण है। जिसने भी उन्हें चाहा, उन्होंने स्वयं को उसी भाव में प्रस्तुत कर दिया। मीरा के लिए वे प्रेमस्वरूप बने, अर्जुन के लिए सारथी और मार्गदर्शक, गोपियों के लिए रसिक प्रियतम, और विदुर के लिए अतिथि और उनके प्रिय भगवान। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह तथ्य बताता है कि व्यक्ति की भावना और अपेक्षा ही उसके अनुभव को गढ़ती है। कृष्ण की छवि हर साधक के मन में उसकी अपनी चाह और लगन के अनुसार आकार ले लेती...

स्वतंत्रता की अनुभूति: स्त्री की दृष्टि

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  यह लेख स्त्री–स्वतंत्रता के विविध आयामों को गहराई से प्रस्तुत करता है। इसमें व्यक्तिगत, सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टांतों के माध्यम से पाठक को यह समझाया गया है किस्वतंत्रता केवल संवैधानिक अधिकार नहीं, बल्कि आत्मबोध और आत्मनिर्णय की प्रक्रिया है। लेख की विशेषता यह है कि यह स्त्री के निजी अनुभवों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता की भावना से जोड़ते हुए पाठक को आत्ममंथन और प्रेरणा दोनों देता है।                        स्वतंत्रता की अनुभूति: स्त्री की दृष्टि                            स्वतंत्रता केवल राष्ट्र की सीमाओं तक सीमित नहीं, यह एक व्यक्ति की चेतना,आत्माभिव्यक्ति और निर्णय की क्षमता से भी जुड़ी होती है। जब एक भारतीय स्त्री "स्वतंत्रता" का नाम सुनती है, तो क्या वह केवल 15 अगस्त के झंडारोहण, देशभक्ति गीतों और राष्ट्रगान तक इस भाव को समेट देती है? या उसके भीतर कोई गहरा द्वंद्व उठता है, जहाँ वह अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचने लगती है।  देश आज़ाद कराने को गांध...

बचपन को आज़ाद कराओ

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देश रोजाना दैनिक अखबार में 15 अगस्त 2025 को प्रकाशित      बचपन को आज़ाद कराओ     हर साल पंद्रह अगस्त का दिन पूरे देश को आज़ाद उमंगों में डुबो देता है, तिरंगे की चमकती धारियाँ, हवा में गूंजते देशभक्ति गीत, स्कूलों के मंच पर झूमते बच्चे और चारों ओर गूंजते स्वतंत्रता के भाषण। लेकिन इस जश्न की गहमागहमी में हमें एक और कैद पर भी सोचना होगा, एक खामोश कैद, जो लोहे की सलाखों से भी मजबूत है। यह है तकनीकी डिजिटल जेल, जिसकी चाबी किसी जेलर के पास नहीं, यह कैद मोबाइल स्क्रीन की है, जिसमें देश का अबोध बचपन धीरे-धीरे कैद हो रहा है। जहाँ कभी बच्चे गली-गली दौड़ते, मिट्टी में घुटनों तक धँसते, पेड़ों पर चढ़कर कच्चे आम तोड़ते, पतंगबाज़ी में चीखते-गाते थे, वहीं आज उनका बचपन मोबाइल स्क्रीन की हलचल तक सिमट गया है: गेम का लेवल पार करना, शॉर्ट वीडियो में खो जाना, और देर रात तक टिमटिमाती रोशनी में आँखें गड़ाए रहना। इतिहास में पढ़ा जा सकता है कि अंग्रेज़ी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने के लिए भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नौजवानों ने अपने सपनों को देश की आज़ादी से जोड़ दिया था। तभी आज के बच्चे...