कन्या पूजन नहीं, कन्या पोषण :स्वदेश सप्तक में स्तम्भ-5

 

बालिका से वामा



आख़िरकार बड़ी स्त्री, माँ, दादी, बुआ, मौसी कब समझेंगी कि स्त्री देवी नहीं, इंसान होती है।


उम्र में बड़ी स्त्रियां अपने अनुभव और सांस्कृतिक आदर्शों के माध्यम से अपनी अबोध बच्ची के मन में “देवी भाव” कब तक रोपती रहेंगी ? यह देवत्व की भावना बच्ची के कोमल मन में सामाजिक निर्माण, पवित्रता, नम्रता और आदर्शपूर्ण चरित्र की कल्पना उसके बाल मन को विकलांग बनाती है। “धरती से अलग” होने की भावना पैदा करती है।


और इस तरह एक बालिका का आदर्शीकृत रूप स्त्रियां ही बनाती हैं। अनजाने दबाव और भ्रम उसके स्वाभाविक व्यक्तित्व और भावनाओं को कुचल, अप्राकृतिक दबाव डालकर अपनी ही बेटी की असली पहचान और सहज भावनाओं का क्षरण कर देती हैं।


देवी बनाकर पूजने की प्रक्रिया अक्सर संस्कृति और परंपरा के बहाने की जाती है, जिसमें स्त्रियों की ही अपनी अबोध स्त्री के प्रति लापरवाही कही जाएगी। आज का कॉलम इन्हीं भावनाओं से ओतप्रोत है।





कन्या पूजन नहीं, कन्या पोषण 

                         


   “लाल चुनरी में लिपटी बालिकाएँ कतार में कितनी प्यारी लगती हैं।” अक्सर स्त्रियों के ही मुँह से सुनी गयी पंक्ति हैं। वे उनके पाँव धोती हैं, आरती उतारती हैं, भोग लगाती हैं,और मानती हैं कि इस विधि से उनके पति-परिवार के पाप धुल गये। पर जब वही कन्या जीवन की विडंबनाओं और अन्याय से जूझती है, तब मौन धर लेती हैं । स्त्रियों की यह चुप्पी! जड़ परंपराओं और अधपकी चेतना का आईना नहीं है?


   घरों में लड़की का जन्म एक ऐसी इकाई के रूप में देखा गया, जो वफादारी और उपयोगिता के लिए है। माँ की कोख से लेकर लोरी तक, उसे देवी और आज्ञाकारी वस्तु में ढालने की कड़ी मेहनत की गयी। समाज ऊँचा आसन देकर पूजता जरूर है मगर उसे सोचने, खेलने, सवाल करने और भविष्य चुनने की अनुमति नहीं देता। अगर उसे बचपन में उसकी अपनी भाषा और आत्मविश्वास दिया जाए, तो वह पूजा की चौकी से स्वत: उठकर अपनी दुनिया में प्रवेश कर जाती है। लेकिन ज्यादातर माँ, दादी, बुआ ही अपने द्वारा झेली-सीखी रूढ़ियाँ और डर उसकी झोली में डाल देती हैं, जैसे यह कोई पीढ़ीगत उत्तराधिकार हो।


जबकि कन्या पूजन और बेजुबान मेमने की बलि में बहुत फ़र्क नहीं, वहाँ शरीर मारा जाता है और यहाँ आत्मा। समाज को ‘स्त्री’ की नहीं, देवी की चाह होती है, जो आदेश माने और सिर झुकाए पूजनीय बनी रहने में सुख मनाये। लेकिन आस-पास वाली उसकी सगी स्त्रियों को तो सोचना चाहिए कि बच्ची को देवी नहीं, मनुष्य बनने की ज़रूरत है, जो हँस सके, रो सके, दौड़ सके, डर सके और ‘न’ कह सके। जो अपनी राय बनाये भी और उस पर चल भी।


बाल मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे बताते हैं कि दो से सात वर्ष की उम्र में बच्चा प्रतीकों और कल्पनाओं से सीखता है। इस उम्र में खेलने, बोलने, दौड़ने और सवाल करने की आज़ादी बेहद ज़रूरी है। लेकिन बच्चियों से कहा जाता है—“ये लड़कों के खेल हैं”, “बहुत बोली तो वाचाल समझी जाओगी”, “दौड़कर चलोगी तो बेहया कहलाओगी।” इस तरह अबोध कल्पनाओं-आत्मविश्वास की जड़ें काट दी जाती हैं।


मनोवैज्ञानिक लिसा डामोर लिखती हैं कि जब लड़कियाँ डर और असुरक्षा ज़ाहिर नहीं कर पातीं, तो भीतर ही भीतर चिंता और अवसाद की शिकार होती हैं। डर कमजोरी नहीं, बल्कि आत्म-संरक्षण की चेतावनी का पहला पायदान है। लेकिन हमारे समाज में उन्हें सिखाया जाता है—“छेड़खानी की शिकायत मत करो”, “ज़्यादा मत पढ़ो, शादी में दिक्कत होगी।” ये डर उनके भीतर से नहीं, बाहर से आरोपित होते हैं। नतीजतन, वे “अच्छी बच्ची” बनने की दौड़ में अपनी असहमति, सवाल और गुस्सा दबा देती हैं।


कैरोल गिलिगन कहती हैं—“Girls learn to silence their voice in order to be accepted as good.” यह चुप्पी देवीत्व नहीं, सामाजिक उपेक्षाओं और अपेक्षाओं का परिणाम है। बाहर से “संस्कारी” दिखने वाली बालिका भीतर से आत्म-अस्वीकृति और डर से भरी होती है। वह न खेल पाने की पीड़ा कह पाती है, न डरने की आज़ादी माँग पाती है। नतीज़ा, सगी स्त्रियाँ उसे एक खोखली ‘साहसी’ स्त्री में ढलने को मजबूर कर देती हैं। अगर सच में समाज को अपने कर्मों के प्रति प्रायश्चित करना है, तो पहला कदम कन्या पूजन नहीं, कन्या पोषण होना चाहिए। उस पोषण में—संवेदनशील, समावेशी, सजीव पोषण हो, जिसमें उसकी भाषा, खेल, डर, जिज्ञासा और संवाद—सब पोषित हो सकें। परिवार की स्त्रियाँ ये जाने कि जब उनकी बच्ची आत्मबल से दौड़ना सीखेगी तोसमाज को वे एक सशक्त स्त्री को दे सकेगीं जो सिर झुकाकर  नहीं, सिर उठाकर चल सकेगी। 


  ध्यान ये भी रखा जाना चाहिए, जब एक बालिका को अपनी आवाज़ ऊँची रखने की आज़ादी मिलती है, तो वह समाज की सजावट नहीं, उसका संबल बनती है। यही पूजा का सच्चा रूप भी है।



साहित्य-सम्वेदना-चिंतन से जुड़ी लेखिका 

नोयडा निवासी हैं 





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