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उत्सव मनाना हो

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चित्र : प्रयाग शुक्ल  तो इंतज़ार मत करो वसंत आने का। वसंत का स्वभाव मादक है , कहीं बहक कर रास्ता भटक गया तो रह जाओगे ठंठन गोपाल बने , बरसात में पड़ी कच्ची मिट्टी की ढेली की तरह। या किसी दरख़्त पर लटके पतझड़ के उस अन्तिम पत्ते की तरह जो न टूटना चाहता है और न ही डाल पर रुकना। किसी यात्रा पर अकेले चले जाना। तुम्हारे मौन में उत्सव फूटेगा जिसे तुम सम्हाल नहीं सकोगे। उसे बहने देना अपने सानिध्य में। तुम किसी पहाड़ी पर सूरज की पहली किरण के साथ चलना शुरू करना और चलते रहना जब तक कि थक न जाओ उस हिरण के बच्चे की तरह जिसने दौड़ना अभी अभी सीखा है। जब थकान तुम्हें घेरने लगे तो किसी पेड़ की जड़ की टेक लेकर बैठ जाना। तुम्हें वहीं किसी छाया के चकत्ते में उत्सव पड़ा मिल जाएगा। तुम क्या सोचते हो दिवाली उत्सव का नाम है ? नहीं , दीवाली कमर तोड़ सफाइयों से गुजरकर बरसाती सीलन मिटाने की एक अमर गाथा है। सच कहूं तो उत्सव बाहर नहीं , तुम्हारे भीतर रहता है। इधर उधर मत टटोलो उसे , खो गया तो ढूंढें नहीं मिलेगा। उत्सव के रंग-ढंग अनोखे हैं। तुम जब अपने कीमती दिन को खोकर मुंह तकिया में दबोच कर निस्सहाय सो जाते