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Showing posts from July 3, 2020

हे नदी !

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हे नदी !                                तुम कौन हो ? क्या तुम दो तटों के बीच बहती   कसमसाती-सी एक   जलधारा हो बस  या बरफ की तरल पिघलन या झरनों का प्रणयनाद  या सिर्फ एक धुन  दौड़ने की  खैर तुम जो भी कहो। किन्तु मैंने देखा है  जब शहर पसरा अपनी जिद्द में  तुम सिमट गईं चुपके से  कहाँ से लाती हो इतना  धैर्य  जंगल जब मचला तो  तुम पसर गईं प्रेमिका बन  लगा तुमसे ज्यादा प्यार करने वाला  और कोई नहीं  गाँव ने भरी उबासी  तो तुमने निहारा उसे अपनी  तरल  नजरों से  रेत के देखे होंठ सूखे  तुम बरस गईं पूरी की पूरी  उस पर  इसीलिए कहती हूँ  कि-हे नदी ! तुम और कोई नहीं  तुम माँ हो  क्योंकि देखा है मैंने  कई-कई बार  माँ को भी नदी बनते हुए  तुम्हारी तरह ।

पिता

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चुनने का मौका                                   जब भी मिला बेटियों को तो उन्होंंने हमेशा ही चुना  पिता को  माँ ने कर लिया सन्तोष बेटी की  सम्वेदनशीलता पर ही माँ करती रही खमोश तीमारदारी  रात -दिन  उन बेटियों की जो लड़तीं हैं लड़ाई  पिता के लिए मांएं देतीं रहीं हैं श्रेय उनका  पिता को  वक्त आया जब बेटी के अलग होने का  तो चुुुने हुए पिता ने देकर दहेज़ खींच लिया अपना भर  अपनापन  चुपके से डोली में बैठाते हुए  हो गेन बेटियाँ उनके लिए दूसरी  तब बेटियों द्वारा उपेक्षित माँ ने भर दिया  अतिरिक्त अपनापन  नहीं होने दिया एहसास कभी उनको  पराये होने का  विदाई के बाद  माँ बिलखती रही बिना खाए-पिए कोने-अंतरे और चुना हुआ पिता  सोया बेंचकर घोड़े   भेज कर बेटी को पराये घर  पुत्र भक्त पिता |

माँ चुप क्यों हो

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माँ चुप क्यों हो                            कुछ बोलो न  अपने मन की पीड़ा को मेरे आगे खोलो न  कर्तव्य निष्ठ की बेदी बन तुमने अपने को सुलगाया धीरे-धीरे जली सुवासित सदन बनाया मंत्रों सी गुंजित होती जब-जब तुम आँगन में मेरा मन लयबद्ध गीत गाने लग जाता मेरी मुसकानों में ढूंढा था तुमने सुख अपना  अब क्यों चुप हो  कुछ तो बोलो न  हर बुरी बला के आगे बनती ढाल रही  मेरे हर छोटे कृत्यों पर हुई निहाल बड़ी  उत्साह तुम्हीं से सीखा मैंने जीने का  वो हुनर तुम्हीं से आया मुझमें जिज्ञासा सिरहाने रखने का  अब क्यों चुप हो  कुछ बोलो न  बेबस हुईं भावनाओं को मेरे आगे खोलो न  माँ तेरे मधुमय शब्द सुनाई जब ना पड़ते मेरे मन में शंकाओं के काले बादल घिरते तू खुश होगी तब ही मैं जी पाऊँगी  तेरी ही आशीषों से जग में कुछ नव नव कर पाऊँगी  इसलिए कह रही हूँ तुम अपनी मुसकान बिखेरो न  हर पल हँसती रहो और ममता से बोलो न  अपनी सिथिल हुई वाणी को मेरे आगे खोलो न  मैंने अपने संग-संग अपने बच्चों को  भी उसमें बड़ा किया  एक-एक पल उन पर अपना वार दिया  सोचा था गरिमा लेकर बच्चे उतरेंगे जग में अपने संग मेरा भी ऊंच