हे नदी !

हे नदी !                               
तुम कौन हो ?
क्या तुम दो तटों के बीच बहती  
कसमसाती-सी एक  
जलधारा हो बस 

या बरफ की तरल पिघलन
या झरनों का प्रणयनाद 
या सिर्फ एक धुन 
दौड़ने की 
खैर तुम जो भी कहो।
किन्तु मैंने देखा है 
जब शहर पसरा अपनी जिद्द में 
तुम सिमट गईं चुपके से 
कहाँ से लाती हो इतना 
धैर्य 

जंगल जब मचला तो 
तुम पसर गईं प्रेमिका बन 
लगा तुमसे ज्यादा प्यार करने वाला 
और कोई नहीं 
गाँव ने भरी उबासी 
तो तुमने निहारा उसे अपनी 
तरल  नजरों से 

रेत के देखे होंठ सूखे 
तुम बरस गईं पूरी की पूरी 
उस पर 
इसीलिए कहती हूँ 
कि-हे नदी !
तुम और कोई नहीं 
तुम माँ हो 

क्योंकि देखा है मैंने 
कई-कई बार 
माँ को भी नदी बनते हुए 
तुम्हारी तरह ।

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