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Showing posts from June 13, 2022

तुम्हारी यादें

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  ओ प्यारे मुरशिद!! ज़रा ठहर जाना उस मोड़ पर जहां रुक कर की थीं हमने बातें , शीशम के दरख्तोंं से तुम ये कतई मत समझ लेना कि मैं तुम्हारे गंतव्य में बाधा बनूँगी नहीं!बिल्कुल नहीं मैं लौटाने आ रही हूं बस तुम्हारी यादें जिन्हें तुम भूल गए हो शाम कॉफी पीते वक्त मेरे घर के कैफेटेरिया में पड़ी वैंत वाली उस गोल मेज़ पर जिस पर रखा है तुम्हारी पसंद का क्रिस्टल वाला ऐश ट्रे सुनो! मैंने तुमसे सिर्फ़ एक सिगरेट मांगी थी ताकि तुम्हारी गिनती की सिगरेटों में से कर सकूं एक कम लेकिन तुमने तो यादों का पुलिंदा ही खिसका दिया आँख बचा कर नन्हें गुलदान की ओट में तुम क्या सोचते हो वस्तुएं तुम्हारी चुगली न करेंगी खैर छोड़ो अब इन धड़कती यादों पर मेरा कोई अख़्तियार नहीं इन्हें तुम्हारे पास होना ही उचित होगा इसलिए कहती हूं ठहर जाओ कि मिल सके मुझे रूहानियत भरा सुकून।  ***

गरीब की सम्वेदनाएं

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  दुत्कारना! नहीं नहीं ये शब्द शोभा नहीं देते सही शब्दों में उसे नजरंदाज करना , कभी खैर कुशल न पूछना उसके घर आई खुशियों में , मन से शामिल न होना ही कहना उचित होगा लेकिन एक गरीब उसके दिए चंद सिक्कों की खनक में क्यों भूल जाता है अपने जीवन की सारी जहालत और निछावर कर देता है देनदार की झूठी मुस्कान पर अपने ईमान को जबकि देने वाला होता है अब भी चारों खाने सचेत कुछ भी अपना देते वक्त जल्द ही भुनाएगा वह अपना दिया दरअसल अपने वक्त और मिजाज़ के अनुसार , बेरहम देनदार जानकर उसकी पोल ख़रीद रहा होता है अपने लिए असल हमदर्दी , अपने प्रति लॉयल्टी और सामाजिक सरोकारों में अपनत्व भरी खुशामद गरीब की लेकिन गरीब क्यों नहीं रख पाता है बेरुखी याद उसकी जिसने परोसी होती है बीते वक्त में हर संभव अवहेलनाएं उसके प्रति दरअसल दूरदर्शी मदद करने वाला व्यक्ति पैसों की चमक दिखाकर उसकी मदद नहीं , सही मायनों में ठग रहा होता है गरीब की सम्वेदनाएं ।  ***

भूलने और याद करने के बीच

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बरसात का मौसम अभी आया नहीं था किंतु उग आई थी प्यास हरी हरी उस पत्ते के अंतर में जो अमराई के दिनों में झर झर झरते आमों के साथ आ गिरा था ज़मीन पर पर नहीं उठाया था किसी ने भी आम के पत्ते को फलों के साथ तभी से दबा बैठा है पतझड़ उसके नीचे पत्ता जानता है गणित पतझड़ और वसन्त का किन्तु उसे करना होगा स्वागत पहले बरसात का फिर कांपती ठिठुरती ठंड का कुल मिलाकर उसे भूलना होगा अपने आप को क्योंकि किसी ने कहा है कि भूलने और याद करने के बीच ही बनती है अपनी दुनिया बनता है अपना मन!!  ***

मन का बंजरपन

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  कभी कभी मन का खालीपन बंजर बनकर हो जाता है तब्दील रेत के ढूहों में रेतीला बवंडर थामने से भी नहीं थमता तब में फैंक देती हूं स्मृति की एक नन्हीं कंकड़ी शब्द सागर में जहां संसारी कुमुदनी ले रही होती है फुर्तीली अंगड़ाई यादों की मछलियां देखते ही देखते सोख लेती हैं मन का अर्थहीन रूखापन मन फिर से लग जाता है दुनिया के रख रखाव में स्थूल विचलन यदि रहे स्थाई तो हो सकेगा स्थगित मन का बंजरपन सदा के लिए।  ***