गरीब की सम्वेदनाएं

 


दुत्कारना! नहीं नहीं

ये शब्द शोभा नहीं देते

सही शब्दों में उसे

नजरंदाज करना,कभी खैर कुशल न पूछना

उसके घर आई खुशियों में,

मन से शामिल न होना ही

कहना उचित होगा

लेकिन एक गरीब

उसके दिए चंद सिक्कों की खनक में

क्यों भूल जाता है

अपने जीवन की सारी जहालत

और निछावर कर देता है

देनदार की झूठी मुस्कान पर

अपने ईमान को

जबकि देने वाला होता है

अब भी चारों खाने सचेत

कुछ भी अपना देते वक्त

जल्द ही भुनाएगा वह

अपना दिया

दरअसल अपने वक्त और मिजाज़

के अनुसार, बेरहम देनदार

जानकर उसकी पोल

ख़रीद रहा होता है अपने लिए

असल हमदर्दी,अपने प्रति लॉयल्टी और

सामाजिक सरोकारों में

अपनत्व भरी खुशामद गरीब की

लेकिन गरीब क्यों नहीं रख पाता है

बेरुखी याद उसकी

जिसने परोसी होती है बीते वक्त में

हर संभव अवहेलनाएं

उसके प्रति

दरअसल

दूरदर्शी मदद करने वाला व्यक्ति

पैसों की चमक दिखाकर

उसकी मदद नहीं,

सही मायनों में ठग रहा होता है

गरीब की सम्वेदनाएं ।

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