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मेरा वसंत

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फ़रवरी विदा होते-होते अपने साथ ठिठुरती सर्दी ले जाती है और पतझड़ संसार को सौंप जाती है। जो भूमंडल ठण्ड से सिमटा पड़ा होता है वह अचानक रूखेपन से जूझने लगता है। हर ओर सन्नाटे का संगीत बज उठता है। पतझड़ की शामें वैरागी की तरह विकल दिखने लगती हैं। जीवन नदी के तट वैराग्य भाव की शून्यता में लीन अन्तस् में मौन सहेजे भटके हुए सन्यासी-से लगते हैं। पतझरी साँझें अपनी पूरी जुझारू जिजीविषा के साथ संधिकाल की व्यथा को अकेले पीते हुए प्रकृति के आँचल पर धैर्य के साथ हरे-हरे बूटे काढ़ने लगती हैं। उतरते पतझड़ की नवयौवना भोर की मद भरी आँखें रोगी के मन में भी मुखरित उमंग का संचार करती हैं। फिर भी कोई है जो कहता है कि जगत में कितना भी वसंत क्यों न आ जाए , धरती आसमान नहीं बन सकती और आसमान धरती , यही सत्य है , जो सर्वमान्य और सर्वविदित भी है। हाँ , दोनों के मिलन से रंगतें दोनों ओर बदल जाती हैं। धरती पुष्पछादित हो महमहाने लगती है तो आसमान नीले मूँगे जैसा दमक उठता है। वसंत के दिन प्रेमरस भीने अनुरागी होते हैं। तो रातें फलदायी सतरंगी सपने बुनने में सक्षम। वसंत के मौसम में साँझ सुन्दरी की पायल कुछ अलग तरह से छनकती है।