बूढ़ी होती स्त्री
बात ये नहीं कि मैं बूढ़ी हो रही हूँ बात ये है कि मैं सुंदर हो रही हूँ धुंधलाई आँखों में जीवन के रंग अब दिखते हैं अपने सबसे मौलिक स्वरूप में साथी की कही हर बात में ढूँढ़ लेती हूँ कुछ अपने योग्य अर्थ; बिगड़ी बात पर अब घबराहट नहीं होती बातों के मायने तुरंत नहीं बदलती— सारे अर्थ उधारी खाते में डिपॉज़िट कर देती हूँ कभी फुर्सत में समझने को आँखों के नीचे उभर आई महीन रेखाएँ कभी दुलराती हैं मुझे, कभी सच का पानी बनकर आँखें साफ कर जाती हैं घर से निकलते हुए अब आईने की नहीं घड़ी और छड़ी की याद रहती है समय के साथ कदम मिलाकर चलने में एक अनोखा आनंद है और आनंद है जीवन के अंतिम शब्दनाद को धीरे-धीरे अपने भीतर उतरते हुए देखने में। कल्पना मनोरमा