आख़िर सिक्कों की खनक में क्यों खोती जा रही हँसी
"मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे..." सुमित्रानंदन पंत की यह कल्पना जितनी मासूम उनके लिए थी, उतनी ही तब के माता-पिता के लिए भी होती थी। मगर आज का मनुष्य छुटपन से ही इस कल्पना को मन के मोद के लिए नहीं, जीवन-स्तर ऊँचा रखने के लिए साकार करने में कठोर से कठोर प्रयत्न में जुट जाता है। आज का समाज केवल और केवल पैसे 'उगाने' की बात सोचता, कहता और महसूस करता है। बचपन से ही व्यक्ति को होश नहीं रहता कि उसकी चाल कब बिगड़ी और कब वह मानवीय पावदान से खिसक कर जहन्नुम में जा गिरा है। विगत सदी में प्रसिद्ध कवि की इस कविता को कभी मौज मस्ती में पढ़कर हँस लिया करते थे, मगर अब वही कविता समय पर एक गहरा व्यंग्य उकेरती है। आज हर ओर दौड़ ही नहीं, अंधी दौड़ है। नौकरी, व्यवसाय, सोशल मीडिया, ब्रांडेड जीवन जीने की दौड़ में व्यक्ति सही गलत कुछ नहीं छोड़ता। यहाँ तक कि अपनी माटी की गरिमा को अप...