आख़िर सिक्कों की खनक में क्यों खोती जा रही हँसी
"मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे..."
सुमित्रानंदन पंत की यह कल्पना जितनी मासूम उनके लिए थी, उतनी ही तब के माता-पिता के लिए भी होती थी। मगर आज का मनुष्य छुटपन से ही इस कल्पना को मन के मोद के लिए नहीं, जीवन-स्तर ऊँचा रखने के लिए साकार करने में कठोर से कठोर प्रयत्न में जुट जाता है। आज का समाज केवल और केवल पैसे 'उगाने' की बात सोचता, कहता और महसूस करता है। बचपन से ही व्यक्ति को होश नहीं रहता कि उसकी चाल कब बिगड़ी और कब वह मानवीय पावदान से खिसक कर जहन्नुम में जा गिरा है। विगत सदी में प्रसिद्ध कवि की इस कविता को कभी मौज मस्ती में पढ़कर हँस लिया करते थे, मगर अब वही कविता समय पर एक गहरा व्यंग्य उकेरती है।
आज हर ओर दौड़ ही नहीं, अंधी दौड़ है। नौकरी, व्यवसाय, सोशल मीडिया, ब्रांडेड जीवन जीने की दौड़ में व्यक्ति सही गलत कुछ नहीं छोड़ता। यहाँ तक कि अपनी माटी की गरिमा को अपने हाथों मिटाने में लगा है। वो मिट्टी जो कभी रिश्तों में महकती थी, जीवंत गुनगुनाहट और सोंधी गंध बनकर मानवीय स्मृतियों को रंग देती थी, अब तो न बाहर उपज है और न ही भीतर। सिक्कों की खनक में खोती हँसी तब तक महसूस नहीं होती जब तक अवसाद की गर्त में व्यक्ति गिर न जाए। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) के अनुसार, 2022 में वैश्विक मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं 25% तक बढ़ी हैं। हैरानी की बात यह है कि ये आँकड़े उन देशों के हैं, जहाँ आर्थिक विकास सबसे तीव्र है। “कीमत” की ज़द में जकड़ा आदमी कब अपनी जान की बोली लगा बैठता है, जान ही नहीं पाता। एक तरफ़ वह पैसे के बदले अपनी जान की कीमत अदा करता है तो दूसरी ओर मानसिक शांति कब अशांति में बदल जाती है, जान ही नहीं पाता है। सबसे खतरनाक बात ये है कि धन लोलुप सिर्फ अब शहर के लोग यानी खाए-अघाए ही नहीं, बल्कि गाँव के सीधे सच्चे लोग भी अपनी धरती को ज़हर में गर्क कर रहे हैं। अन्न पर कीटनाशकों का छिड़काव कर उपजाऊ जमीन को बंध्या बना रहे हैं। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (FAO) की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत की 30% कृषि भूमि अब अपनी मूल उर्वरता खो चुकी है। “जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा मन।” किसी ने बिल्कुल सही कहा है। पेस्टिसाइड में सीझी फसल सीधे तन को ही नहीं, मन को भी रोगी बना रही है। जो मन कभी संवेदना, रचनात्मकता और आत्मीयता का केंद्र हुआ करता था, अब ठोस और बीमार हो चला है। जहाँ पहले विचारों के फूल खिलते थे, अब वहाँ केवल टारगेट्स और डेडलाइंस आदि जैसी खरपतवार उग रही है। इक्कीसवीं सदी में कांसा, पीतल, स्टील में तब्दील हुआ इंसान किसी काम का नहीं रहा। शायद इसी स्थिति के लिए कभी ये मुहावरा बनाया गया होगा— “कुत्ता घर का रहा न घाट का”....बदलाव प्रकृति का नियम है। लेकिन प्राकृतिक बदलाव अपनी आवश्यकता और मनुष्य की जरूरत भर धीरे-धीरे होता है। आदमी की तरह सीधा-उल्टा या काला-सफ़ेद नहीं होता। अब सिर्फ आदमी की जीवनशैली में नहीं, व्यक्तित्व में आ चुके विषाक्त विचार उसे चैन से बैठने नहीं देते। और जब-जब ऐसा होता है, तब-तब ‘मनुष्यता’ एक भाव नहीं, ‘कंडीशन’ बन जाती है। ‘स्टेट ऑफ वर्ल्ड वेलबीइंग रिपोर्ट 2023’ के अनुसार, उच्च आय वर्ग के 70% युवा अपने जीवन को दूसरी की ‘तुलना’ में देखने के कारण संतोष से वंचित होते जा रहे हैं। वे न अपने को पसंद करते हैं और न ही किसी दूसरे को सम्मान, प्यार और सद्भाव दे पाते हैं। आज का युवा भले मेटैलिक चमक में खोया हुआ हो पर भीतर से थका और खोखला होता जा रहा है। आज का बच्चा जन्म से पहले मशीनों की पहुँच में आ जाता है। स्कूल जाने से पहले कोचिंग सेंटर भेजा जाता है, रात को बिस्तर पर जाने से पहले मोबाइल पर स्क्रॉल करता है। फिर भी वह बच्चा खुश नहीं रह पाता है। NCRB (2023) की रिपोर्ट बताती है कि पिछले पाँच वर्षों में भारत के छात्रों में आत्महत्या की दर 21% बढ़ी है। वजह? असफलता का डर, अभिभावकों की अपेक्षाएं, दोस्तों में नंबर वन रहने की ललक और जीवन के मायने जो दादी और नानी की कहानियों के मार्फत बचपन में सीख लेते थे, अब ग्रूमिंग क्लास अटेंड करने के बाद भी नहीं जान पाते हैं। थोड़ा ठहरिए... सोचिए...क्या आपको याद है कि आख़िरी बार बिना किसी वजह के कब दिल खोलकर हँसे थे? कब मिट्टी से भरी पगडंडियों पर चले थे। कब रिश्ता कमाने की कोशिश के बिना, उसे निभाया था? कब बिना अपना नफा सोचे किसी के चेहरे पर मुस्कान लाए थे।
जब भारत पश्चिमी देशों की नकल कर उन जैसा होने का दंभ पाल रहा है, वहीं सूत्रों के मुताबिक़ फिनलैंड जैसे देश भी है, जहाँ अन्य जरूरी शिक्षा के साथ "खुश रहना" भी विद्यालयी शिक्षा का विषय है। खुश रहना एक सबसे अहम मानवीय वृत्ति है। जिसकी दम पर वह देश लगातार दुनिया का सबसे खुशहाल देश बना हुआ है। ऐसा नहीं भारत ने इसकी नकल नहीं की? की, बिल्कुल की। यहाँ भी कुछ राज्यों में ‘हैप्पीनेस करिकुलम’ शुरू किए गए हैं। जो बच्चों को जीवन जीने की कला सिखाते हैं, केवल कमाने की नहीं लेकिन खुशी का अभियान “चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात” में बदल जाता है। अंत में बस इतना ही—कि बचाना और कमाना है तो पैसे नहीं, मन की मिट्टी बचाने में ध्यान देना होगा। रिश्तों को साथ लेकर कामयाबी पर निकलना होगा। क्योंकि ध्यान रहे, बहुत ऊँचाई पर लगे पेड़ छाया नहीं देते। और बहुत तेज़ दौड़ने पर अक्सर मुँह के बल गिरने का खतरा बना रहता है। वे अपने साथ अपनों की पहचान भी भूल जाते हैं। मन और आत्मा की जमीन पर पैसे बोने से पहले, उस मिट्टी को बचाइए जिसमें रिश्ते उगते हैं, प्रेम पलता है और हँसी के दरख़तों तले मानवीयता मुस्कुराती है। क्योंकि अल्टीमेट गोल जीने का है। जीवन को प्रदर्शनी में रखने के लिए नहीं। जीवन को कीमती बनाने का नहीं।
सही और सटीक विश्लेषण
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