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खेल, खिलौना या काँटों का बिछौना

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खेल, खिलौना या काँटों का बिछौना — कल्पना मनोरमा बचपन को सहज विकसित करने की सबसे हार्दिक विधि "खेल" होती है। लेकिन स्त्रैण शिशु के लिए यह सहज प्राप्य नहीं। जिस उम्र में उसके हाथों में गुड़िया होनी चाहिए, सयाने लोग परंपराओं की मशीन पर चढ़ाकर मर्यादा की बखिया लगाने लगते हैं। बच्ची के खिलौने, उसके खेल, यहाँ तक कि उसकी हँसी भी परिवार और समाज की निगाहों में खटकने लगती है। संस्कारों के नाम पर कूटनीतियों का धीमा ज़हर उसके “खेलों” का अर्थ बदल देता है। और इस मुहिम की अगुआई प्रायः उसकी सगी स्त्रियाँ ही करती हैं। अबोध बच्ची जब हाथ–पाँव फैलाकर संसार को अंगीकार करना सीख रही होती है, उस समय भी उसे स्वतंत रूप से हाथ पैर चलाने नहीं दिए जाते। “बच्ची है, इसके पाँवों को जोड़ कर रखो।” “चित लेटी स्त्री अच्छी नहीं लगती, करवट लेकर लेटना सिखाओ।” जैसे जुमलों के साथ उसे चादर से ढक दिया जाता है। इसी के साथ उसके उमंग की इतिश्री हो जाती है। इस तरह स्त्रैण खेल और खिलौने की पृष्ठभूमि पर एक अदृश्य बंदिशों का बिछौना तैयार होता है। जबकि बिछौना आराम और सहूलियत का होना था, हो काँटों का जाता है, दुःख ...