खेल, खिलौना या काँटों का बिछौना
खेल, खिलौना या काँटों का बिछौना
— कल्पना मनोरमा
बचपन को सहज विकसित करने की सबसे हार्दिक विधि "खेल" होती है। लेकिन स्त्रैण शिशु के लिए यह सहज प्राप्य नहीं। जिस उम्र में उसके हाथों में गुड़िया होनी चाहिए, सयाने लोग परंपराओं की मशीन पर चढ़ाकर मर्यादा की बखिया लगाने लगते हैं। बच्ची के खिलौने, उसके खेल, यहाँ तक कि उसकी हँसी भी परिवार और समाज की निगाहों में खटकने लगती है। संस्कारों के नाम पर कूटनीतियों का धीमा ज़हर उसके “खेलों” का अर्थ बदल देता है। और इस मुहिम की अगुआई प्रायः उसकी सगी स्त्रियाँ ही करती हैं।
अबोध बच्ची जब हाथ–पाँव फैलाकर संसार को अंगीकार करना सीख रही होती है, उस समय भी उसे स्वतंत रूप से हाथ पैर चलाने नहीं दिए जाते। “बच्ची है, इसके पाँवों को जोड़ कर रखो।” “चित लेटी स्त्री अच्छी नहीं लगती, करवट लेकर लेटना सिखाओ।” जैसे जुमलों के साथ उसे चादर से ढक दिया जाता है। इसी के साथ उसके उमंग की इतिश्री हो जाती है। इस तरह स्त्रैण खेल और खिलौने की पृष्ठभूमि पर एक अदृश्य बंदिशों का बिछौना तैयार होता है। जबकि बिछौना आराम और सहूलियत का होना था, हो काँटों का जाता है, दुःख इस बात का कि इसे बच्ची की माएँ, दादियाँ, बुआएँ और मौसियाँ बुनती हैं। जहाँ सपने देखने पर भी पहरे होते हैं। बालिका की जीवन-परिधि विस्तार पाने से पहले संकुचित कर दी जाती है। जिस बालिका के लिए आँख भर आकाश बड़ा होना था, उसे आँगन के माप भर उड़ान भरने के लिए तैयार किया जाता है। यह हदबंदी इतनी सघन होती है कि कमजोर मन की स्त्री आगे चाह कर भी तोड़ नहीं पाती।
यूं तो बालिका का जन्म भी परिवारों में उल्लास और आशीर्वाद की तरह होना चाहिए, लेकिन अक्सर उसका जन्म, खामोशी, उदासी और अनिर्णय की ज़मीन पर होता है। आरंभ जब कुंठा भरा हो तो मध्य या अंत सुंदर होने की संभावना कम ही रह जाती है। वह बच्ची, जो भ्रूण से मनुष्य बनने की प्राकृतिक यात्रा तय करती है, आगे चलकर अप्राकृतिक जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो जाती है। जैसे-जैसे वह बड़ी होती है, सामाज की अनदेखी व्यवस्था उसकी गति को मापने लगती है। नन्हीं हथेलियों में चाँद पकड़ने की कल्पना “सावधानी”, “संकोच” और “मर्यादा” के ताने-बाने में जकड़ दी जाती है।
गोद में खेलती वह मासूम बालिका संसार को रंग-बिरंगी तितलियों में देखना चाहती है, पर परिवार की रीतियों को स्वर देते हुए स्त्रियां ही उसके पंख काट देती हैं। उसका भाई गली में क्रिकेट खेलेगा, मगर उसे “घर-घर” वाला खेल खेलने के लिए कहा जाएगा। कोने में रहने की सलाह दी जाएगी।
घर की देहरी,व्यक्ति के लिए आँगन भर आकाश से निकाल कर दुनिया तक पहुँचने का एक उद्घोषक बिंदु होती है, वही बालिका के लिए मर्यादा की लकीर बन जाती है। परिवार की परंपरागत सोच कहती है, “तुम कमरे में सीधी खड़ी हो पा रही हो, और तुम्हारा सिर अगर छत से नहीं टकरा रहा है ,तो इतना ही स्वतंत्र होना काफ़ी है।”
विडंबना यह है कि घर की बुज़ुर्ग स्त्रियाँ ही उसका आकाश छोटा करती हैं। वही स्त्रियाँ जिन्होंने अपने जीवन में ऐसी ही रुकावटों का अनुभव किया था, अब अगली पीढ़ी की राह रोकने वाली चौकीदार बन जाती हैं। यह पराजय साधारण नहीं, क्योंकि यह लड़ाई पहले स्त्री और स्त्री के बीच लड़ी जाती है, फिर स्त्री और पुरुष के बीच का घमासान बनती है। जब बालिका अपनी नज़दीकी स्त्रियों, जैसे माँ, दादी या बुआ से समर्थन चाहती है, तो उसे परंपराओं का बोझ और अवरोध मिलता है। यह दबाव इतना प्रेमिल और स्त्रैण होता है कि बच्ची उसी में सहजता खोजने लगती है। एक बालिका का रूढ़ियों के आगे झुककर घुटने टेकना,अगली पीढ़ी की घुटन की सहमति बन जाती है। स्त्री असहमति का अर्थ अपमान, डाँट और तिरस्कार है। यही वह बिंदु है जहाँ बालिका अपने भीतर के आत्मिक खेल को खो देती है।
पर यह कहानी यहीं नहीं रुकती। वही बालिका जब वामा बनकर सृष्टि का मार्ग प्रशस्त करती है, जब उसकी कोख से नवजीवन जन्म लेता है, वह अपने भीतर की रुकावटों और आहत मन के साथ ही “देना” आरंभ करती है। तब समाज जागता है, उससे अपेक्षा करता है कि वह अपने पुत्रों को ऊँचे संस्कार दे, जबकि उसके भीतर कुचला हुआ स्वाभिमान और संकोच की पोटली में बंधी ममता ही दाय है। जिस स्त्री ने अपने खेल, परंपराओं की आग में भस्म होते देखे, उससे वही समाज अपने पुत्रों के साथ खेलने की उम्मीद करता है।
यह समाज के दोहरे मानदंडों की पराकाष्ठा है। देखने में समय बदला हुआ लगता है, पर सच्चाई यह है कि आज भी बालिकाएँ पालने से मैदान तक की यात्रा सहज नहीं कर पातीं। यह दासता केवल उनकी नहीं, बल्कि पूरे समाज की है। क्योंकि जब एक बालिका अपनी पूर्ण क्षमता तक नहीं पहुँच पाती, तो समाज की आधी ऊर्जा, आधा कौशल और पूरी संवेदनशीलता नष्ट हो जाती है।
फिर भी आशा की किरण कभी अस्त नहीं होती। जब कोई जुझारू बालिका अपने भीतर के आत्मिक खेल को बचा लेती है, तभी समाज को सावित्रीबाई फुले, मीराबाई, लक्ष्मीबाई या महादेवी वर्मा जैसी स्त्रियां पूरे समाज को चकित कर देती है। परंपराओं को तोड़ने का साहस हर स्त्री में होना चाहिए। क्योंकि स्त्री ही संसार की धुरी है।
दरअसल, बालिका कमज़ोरी की प्रतीक नहीं, समाज की गतिशीलता का आरंभिक बिंदु है। उसका खेलना, दौड़ना और सपने देखना समाज के स्वास्थ्य और रचनात्मकता से जुड़ा है। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि हमारी बेटियाँ सिर उठाकर संसार में मानवता के खुले मैदान तक पहुँचें, तो हमें उनके मन के आँगन को सीमित नहीं, विस्तृत करना होगा।
समय आ गया है कि स्त्रियाँ यह समझें — एक बालिका की पराजय केवल एक बच्ची की नहीं, बल्कि पीढ़ियों की पराजय बन जाती है, और उसकी जीत, पीढ़ियों की जीत।
आज की बालिका कल की वामा होगी,किसी की मां होगी। याद ये भी रखना होगा कि जननी को दृष्टि पोषित करती है। आदमी नहीं।
नारी शक्ति की महत्ता को बताता सार्थक लेख
ReplyDeleteस्त्री हितों की हिमायत करती शानदार लेख।
ReplyDeleteसादर।
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नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ७ अक्टूबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
स्त्री स्वातंत्र्य को सर्मिथत करता महत्वपूर्ण लेख
ReplyDeleteबढ़िया लेख
ReplyDeleteसार्थक लेखन
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