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Showing posts from August 9, 2025

माँ भाषण नहीं,भाषा दो

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स्वदेश का रविवारीय स्तंभ 4 बुनियादी चिन्तन : बालिका_से_वामा स्त्री भाषा का प्रारंभ बालिका के बचपन में ही हो जाता है, जब उसका मन अबोध और जिज्ञासु होता है। इस उम्र में वह अपने आस-पास की महिलाओं जैसे माँ, दादी, नानी, बुआ, मौसी, बड़ी बहन से सीखती है। ये महिलाएँ ही उसके लिए भाषा, व्यवहार, संस्कार और स्त्रीत्व की पहली शिक्षक होती हैं। बालिका के मन में उठने वाले सवाल, उसकी जिज्ञासा, उसके भावों को समझकर और सही दिशा देकर ये महिलाएँ ही "स्त्री भाषा" के बुनियाद को मजबूत करती हैं। उनके अनुभव, बोलने का अंदाज़, भावों की अभिव्यक्ति आदि सब मिलकर बालिका की भाषा को आकार देते हैं। इसलिए, यह ध्यान देना और समझना आवश्यक है कि कैसे ये रिश्तेदार स्त्रियाँ अपनी अबोध बालिकाओं को सुनती, समझती और संभालती हैं, ताकि उनकी भाषा और व्यक्तित्व सकारात्मक और सशक्त बने। बालिका सुदृढ़ होगी तो वामा व्यवस्थित हो सकेगी। माँ भाषण नहीं,भाषा दो                                ...

फूलों से खुशियों भरा नाता

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यह लेख जीवन के तीन चरणों—बचपन, जवानी और बुढ़ापे—में फूलों के बदलते अर्थ और भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता है। फूल यहाँ केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि प्रेम, स्मृतियों, सांत्वना और जीवन-दर्शन के प्रतीक हैं, जो हमें निःस्वार्थ, शांत और गहराई से जीना सिखाते हैं। "फूलों से हमारा रिश्ता तब मजबूत हुआ, जब हमने उन्हें तोड़ना छोड़ा।" मनुष्य के जीवन की यात्रा बचपन से शुरू होकर जवानी के रंगों को समेटते हुए बुढ़ापे तक पहुँचती है। इस पूरी यात्रा में फूलों की उपस्थिति लगभग अदृश्य होते हुए भी अत्यंत गहन है। फूल सिर्फ एक प्राकृतिक सौंदर्य नहीं, बल्कि भावनाओं के प्रतीक हैं। मासूमियत, प्रेम, प्रसन्नता, पीड़ा और यहाँ तक कि विदाई के भी। फूलों से पहली पहचान से लेकर एक बच्चा कैसे वृद्ध के अकेलेपन में फूलों में सांत्वना खोजने लगता है। चलिए, जीवन की तीन अवस्थाओं को फूलों के आलोक में समझने का प्रयास करें। बचपन फूलों जैसा ही होता है। कोमल, रंगीन, सुगंधित और चंचल। एक बच्चा जब पहली बार किसी फूल को देखता है, तो उसके मन में कौतूहल भर जाता है। वह उसे छूना चाहता है, तोड़ना भी चाहता है। फूल देखकर वह मुस्कुराता है। जैसे...