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लिप्सा जो अमरत्व की

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  कस्तूरी   कानन   बसे , सोना   गृहे  सुनार। काया कंचन कांच की ,  भूली क्यों गुलनार।।   दिवस डूबता रंग में ,  उगता लेकर रंग। फिरता फिर क्यों भटकता  भूषित भ्रमित कुरंग ।।   रहे सुनहरा आवरण भोर-सांझ के पास  रजनी के मन कालिमा नर खोजे विश्वास ।।    सब जाते अवसान में ,  कुटी, सदन,प्रासाद । लिप्सा जो अमरत्व की मन का वह अवसाद।। दिवस कहेगा मैं बड़ा  रजनी भवें कमान  बचा अबोला आदमी  कैसे भरे उड़ान ।। ।। ***