प्रिय जिज्जी! बहुत दिन हुए, आपका हाल-चाल नहीं मिला। मन में बस एक उम्मीद बनाए रखती हूँ कि सब ठीक-ठाक होगा। मगर जब से सुना है—तेज़ बुखार में आपकी सुनने की शक्ति जाती रही। मन कच्चा-कच्चा बना रहता है। कान को लेकर बचपन से दुःखी रहीं आप। न अम्मा ने झापड़ मारा होता , न ही बधिरता की शिकार हुई होतीं…। आपके दाहिने कान से हमेशा पानी बहता रहा। जब आप माँ बनी , शरीर कमज़ोर हुआ। फिर तो पस बहने लगा। और अब दोनों कान ख़राब। कितना अच्छा होता , आप सुन सकती। हम चारों बहनें फोन पर मिलजुल बतिया लिया करतीं। पर अपने तो भाग्य ही हेठे हैं…। मेरा पत्र जब आप तक पहुँचेगा तो चौंकेगीं जरूर आप। क्योंकि चिट्ठी लिखने में आलसी लड़की चिट्ठी लिख रही है। लिख इसलिए रही हूँ ताकि आप बार-बार पढ़कर विचार कर सकें। अब इस उम्र तक आते हुए लगता है कि बार-बार किसी बात को क्यों आप पूछती हो। सच कहें—बाल की खाल उधेड़ने वाला रोग अब मुझे भी लग चुका है। जयंती और कुन्नी के साथ अक्सर बहस हो जाती है। जब बात समझ ही नहीं आएगी तो पूछना ही पड़ेग...
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९ -०६-२०२१) को 'लिप्सा जो अमरत्व की'(चर्चा अंक -४०९१ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी !!
Deleteसब जाते अवसान में,
ReplyDeleteकुटी महल प्रासाद।
लिप्सा जो अमरत्व की
मन का वह अवसाद।।
अद्भुत पंक्तियाँ कल्पनाजी।
बहुत सुंदर पंक्तियाँ!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसब जाते अवसान में,
ReplyDeleteकुटी, महल, प्रासाद।
लिप्सा जो अमरत्व की
मन का वह अवसाद।।--बहुत अच्छी और गहन पंक्तियां।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसुन्दर संदेश
ReplyDeleteसुंदर,सारगर्भित दोहे।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteकस्तूरी कानन बसे,
ReplyDeleteसोना गृहे सुनार।
काया कंचन कांच की,
भूली क्यों गुलनार।।
बहुत ही सुंदर भाव समेटे लाजबाब सृजन,सादर नमन