स्वदेश का रविवारीय स्तंभ 4 बुनियादी चिन्तन : बालिका_से_वामा स्त्री भाषा का प्रारंभ बालिका के बचपन में ही हो जाता है, जब उसका मन अबोध और जिज्ञासु होता है। इस उम्र में वह अपने आस-पास की महिलाओं जैसे माँ, दादी, नानी, बुआ, मौसी, बड़ी बहन से सीखती है। ये महिलाएँ ही उसके लिए भाषा, व्यवहार, संस्कार और स्त्रीत्व की पहली शिक्षक होती हैं। बालिका के मन में उठने वाले सवाल, उसकी जिज्ञासा, उसके भावों को समझकर और सही दिशा देकर ये महिलाएँ ही "स्त्री भाषा" के बुनियाद को मजबूत करती हैं। उनके अनुभव, बोलने का अंदाज़, भावों की अभिव्यक्ति आदि सब मिलकर बालिका की भाषा को आकार देते हैं। इसलिए, यह ध्यान देना और समझना आवश्यक है कि कैसे ये रिश्तेदार स्त्रियाँ अपनी अबोध बालिकाओं को सुनती, समझती और संभालती हैं, ताकि उनकी भाषा और व्यक्तित्व सकारात्मक और सशक्त बने। बालिका सुदृढ़ होगी तो वामा व्यवस्थित हो सकेगी। माँ भाषण नहीं,भाषा दो ...
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९ -०६-२०२१) को 'लिप्सा जो अमरत्व की'(चर्चा अंक -४०९१ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी !!
Deleteसब जाते अवसान में,
ReplyDeleteकुटी महल प्रासाद।
लिप्सा जो अमरत्व की
मन का वह अवसाद।।
अद्भुत पंक्तियाँ कल्पनाजी।
बहुत सुंदर पंक्तियाँ!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसब जाते अवसान में,
ReplyDeleteकुटी, महल, प्रासाद।
लिप्सा जो अमरत्व की
मन का वह अवसाद।।--बहुत अच्छी और गहन पंक्तियां।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसुन्दर संदेश
ReplyDeleteसुंदर,सारगर्भित दोहे।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteकस्तूरी कानन बसे,
ReplyDeleteसोना गृहे सुनार।
काया कंचन कांच की,
भूली क्यों गुलनार।।
बहुत ही सुंदर भाव समेटे लाजबाब सृजन,सादर नमन