चित्र : गूगल से साभार एक नई शुरुआत वे खुशनुमा मार्च के दिन थे। गुनगुनी बताश में तितलियाँ अठखेलियाँ कर रही थीं। सुनहरे दिनों की आमद , ललिता के घर काम का सैलाब ले आई थी। ऊनी कपड़ों की पोटलियों में नैपथलीन की गोलियाँ डाल कर संदूक में सुरक्षित कर दी गई थीं। गर्मी के कपड़े दुरुस्त किए जा रहे थे। पुरानी साड़ियों की धज्जियों से पांवदान बनाये जा रहे थे। नयी साड़ियों में फ़ोल टाँकी जा रही थी और उनके मैचिंग ब्लाउज सिले जा रहे थे। बची कतरन से हथपंखों में फुंदने लगाए जा रहे थे। बिजली चली जाने पर इन्हीं पंखों का उपयोग ललिता चाव से किया करती थी। इस तरह समझा जा सकता था कि वह भले नौकरी-पेशा स्त्री नहीं थी पर कामों की उसके पास कोई कमी नहीं थी। पति के ऑफिस की पार्टियों में जाना , सैर करना , कहीं घूमने-फिरने के लिए जाना और किसी के पास बैठकर खाली समय में बिताने को वह पाप समझती थी। वहीं उसका पति उसके इस तरह के जीवनयापन पर उसे अन्तर्मुखी , घुन्नू , घर-घुस्सू , अकुशल एवं अव्यवहारिक स्त्री कहता थकता ही नहीं था। ललिता को इस बात का कोई मलाल भी नहीं था। " किसी को कुछ भी मान लेने में दोष उसी दृष्टि का
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९ -०६-२०२१) को 'लिप्सा जो अमरत्व की'(चर्चा अंक -४०९१ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी !!
Deleteसब जाते अवसान में,
ReplyDeleteकुटी महल प्रासाद।
लिप्सा जो अमरत्व की
मन का वह अवसाद।।
अद्भुत पंक्तियाँ कल्पनाजी।
बहुत सुंदर पंक्तियाँ!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसब जाते अवसान में,
ReplyDeleteकुटी, महल, प्रासाद।
लिप्सा जो अमरत्व की
मन का वह अवसाद।।--बहुत अच्छी और गहन पंक्तियां।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसुन्दर संदेश
ReplyDeleteसुंदर,सारगर्भित दोहे।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteकस्तूरी कानन बसे,
ReplyDeleteसोना गृहे सुनार।
काया कंचन कांच की,
भूली क्यों गुलनार।।
बहुत ही सुंदर भाव समेटे लाजबाब सृजन,सादर नमन