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मैं समय हूँ

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मैं समय हूँ! धरती आकाश मुझमें ही कार्य करते हैं और वे आराम भी मुझमें ही पाते हैं। इनका जन्मदाता और पालन करता मैं ही हूँ।    संसार में मुझे काल के नाम से भी जाना जाता है । मैं ही प्रलय हूँ   ,  मैं ही प्रकृति हूँ। बड़े -बड़े चोटी धारी हिमालय मुझमें ही वास करते हैं और जब किसी चींटी को चोट लगती है तो उसकी पीड़ा में रोने वाला मैं ही हूँ।जब गंगा-जमुना के प्रबल वेग में मैं डुबकी लगाता हूँ तो दसों दिशाएँ परिधान बन मुझसे लिपटना चाहती हैं। दिन का सूरज मेरे माथे पर खौर तिलक  बनकर चमकता है तो रात्रि मेरे नयनों का काज़ल बनने में सुख पाती है । चन्द्रमा मेरी ग्रीवा की शोभा बढ़ाता है तो समुद्र मेरे चरण धोकर खुद को धन्य समझता है |  मेरे मुस्कुराने मात्र से जीवन का सृजन होता है और मेरे क्रोधित होने पर प्रलय भी बिना बिलम्ब किये समस्त संसार को तिनके की तरह तोड़कर रख देता है ।   मानवीय इतिहास इस बात का गवाह है कि जब -जब इस सुंदर पृथ्वी पर धर्म की हानि हुई है तब-तब मैंने ही सतयुग में हरिश्चंद्र ,  त्रेतायुग में राम ,  द्वापरयुग में कृष्ण बनकर जन्म लिया है और धर्म की स्थापना कर समस्त वेदों की रचना मैंने ही की है।