आस्था का चेहरा: प्रेम, अनुभव और अन्वेषण का द्वंद्व

आस्था का चेहरा: प्रेम, अनुभव और अन्वेषण का द्वंद्व प्रेम शाश्वत और सौन्दर्यपूर्ण होता है। प्रेम को न जताना पड़ता है, न साबित करना; वह तो स्वतः अपनी निर्झरिणी में बहता है, मन को भिगोता हुआ। पर आस्था — आस्था केवल भाव नहीं, एक चयन है। उसे अनुभव नहीं, प्रयास करना पड़ता है। उसके स्वाद को, उसके नमक को हमें सायास चखना पड़ता है। यह तथ्य सहज नहीं, अर्जित होता है। जब हम किसी के प्रति आस्था बनाते हैं, तो अपने पूर्वग्रहों, गाढ़े विश्वासों और अनुभवों को एक ओर रखना पड़ता है। जैसे अपने चेहरे पर एक नया चेहरा ओढ़ना। आस्था का चेहरा। और यह चेहरा कई बार हमें विरासत में भी मिल जाता है। हमने अक्सर लोगों को कहते सुना है — “हम अमुक पर आस्था रखते हैं क्योंकि हमारे माता-पिता रखते थे।” ऐसे विरासत में मिले आस्था-घटकों को हम सीने से लगाकर जीवन जीने लगते हैं, बिना यह जाने कि वे हमारे अनुभव से निकले हैं या दूसरों की दी हुई परछाई हैं। क्या यह मनुष्य द्वारा स्वयं के साथ एक प्रकार की छलना नहीं है? और जो स्वयं को छलता है, क्या अंततः उसी के हाथों वह छला नहीं जाएगा? श्रद्धा और अनुभूति का द्वंद्व चिंतामणि ...