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आस्था का चेहरा कैसा हो!

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    प्रेम शाश्वत और सौन्दर्यपूर्ण होता है। प्रेम किसी पर करना या जताना नहीं पड़ता लेकिन आस्था रखनी पड़ती है। जैसे प्रेम की निर्झरनी स्वत: मन को भिगोती चलती है ।  वैसे  आस्था का स्वाद स्वयं नहीं बल्कि उसके नमक को हमें सायास चखना पड़ता है ।  ये तथ्य हृदय में स्वत: स्फुरित नहीं होता। जब भी हम किसी के प्रति अपनी आस्था बनाते हैं, तो अपने तमाम गाढ़े विश्वासों को दरकिनार करना पड़ता है। इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि अपने चेहरे पर हमें आस्था का चेहरा स्वयं निर्मित करना पड़ता है। ओढ़ना पड़ता है ।  वैसे कुछ आस्था करने वाले चेहरे हमें विरासत में भी मिलते हैं। हमने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि " हम फलाने की बात पर इसलिए आस्था रखते हैं क्योंकि हमारे माता-पिता रखते थे। " आस्था के ऐसे घटकों को हम सीने से लगा कर जीवन जीने लगते हैं , जिनको जानते तक नहीं होते हैं। क्यों ? मनुष्य  द्वारा किया गया स्वयं के साथ ये व्यवहार उचित कहलायेगा ? क्या इस प्रकार की छलना कोशिश से वह छला नहीं जाएगा? वो भी अपने ही हाथों । चिंतामणि में श्रद्धेय रामचन्द्र शुक्ल जी कहते हैं , “ अनुभूति के द्वंद्व से ही प्राणी क