उजास से भरी कृष्ण की आँखें

  


कृष्ण जन्माष्टमी 16 अगस्त 2025
कहा जाता है कि आँखें मन का दर्पण होती हैं। शब्दों से कहीं अधिक बोलती हैं। मनुष्य की गहरी संवेदनाओं और अनुभूतियों को उजागर कर बयान कर देती हैं मन के भीतर की सच्चाई। मनोविज्ञान में यह सत्य माना गया है कि अवचेतन मन जिन भावनाओं को छुपा नहीं पाता, वे अनायास ही आँखों में आ बसता है। क्रोध, प्रेम, ईर्ष्या, पीड़ा या उल्लास, सबसे पहले आँखें ही उनका खुलासा कर देती हैं। इसी कारण कभी–कभी बिना कुछ कहे भी व्यक्ति अपनी स्थिति दूसरों के सामने न चाहते हुए प्रकट कर देता है।


यदि हम भारतीय दर्शन की ओर देखें तो यह विचार और भी गहराई से भरा दिखता है। कृष्ण का चरित्र इस बात का जीवंत उदाहरण है। जिसने भी उन्हें चाहा, उन्होंने स्वयं को उसी भाव में प्रस्तुत कर दिया। मीरा के लिए वे प्रेमस्वरूप बने, अर्जुन के लिए सारथी और मार्गदर्शक, गोपियों के लिए रसिक प्रियतम, और विदुर के लिए अतिथि और उनके प्रिय भगवान। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह तथ्य बताता है कि व्यक्ति की भावना और अपेक्षा ही उसके अनुभव को गढ़ती है। कृष्ण की छवि हर साधक के मन में उसकी अपनी चाह और लगन के अनुसार आकार ले लेती है और विलय होकर विचार तत्व में घुल जाती है। परंतु साथ ही कृष्ण का एक और स्वरूप है, निर्लिप्त और अकेला। वे प्रेम में डूबते दिखते हैं, लेकिन बंधते किसी से नहीं। वे व्यक्ति का भक्त का मार्गदर्शन करते हैं, मगर स्वामित्व नहीं जताते। दर्शन कहता है कि यह निर्लिप्तता ही उनकी योगेश्वरता है।


 वे संसार में रहते हुए भी संसार से ऊपर हैं। यही कारण है कि महाभारत के युद्धक्षेत्र में भी, जब सभी भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था, तब कृष्ण शांति और तटस्थता के प्रतीक बने रहे थे और उसी चिंतन धारा में अर्जुन को भी ले आए थे। 


मनोविज्ञान हमें बताता है कि निर्लिप्तता का अर्थ निस्संगता नहीं होता। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है, जहाँ व्यक्ति भावनाओं को अनुभव करता है लेकिन उनमें डूबकर अपनी चेतना को खोता नहीं। कृष्ण का अकेलापन वास्तव में स्वतंत्रता का ऐतिहासिक पौराणिक पैमाना है।


कृष्ण सबके होकर भी किसी एक के नहीं हैं। कैसा तो लगता है कि कोई इतना आत्मीय की प्राण तुल्य और वहीं इतना बिलग कि छू न सको। अगर ध्यान से देखा जाए तो यहाँ एक गहरा दार्शनिक संकेत छिपा है। जब हम कहते हैं, “जिसने चाहा, कृष्ण उसके बन गए,” तो यह भक्ति का मनोवैज्ञानिक नियम है। मनुष्य जिस सत्ता के प्रति पूर्ण समर्पण कर देता है, वही उसके जीवन की धुरी बन जाता है। लेकिन “मगर रहे निर्लिप्त और अकेले” यह अद्वैत दर्शन का परम सत्य है। परम सत्ता किसी एक संबंध में बंधी नहीं रहती, वह सर्वव्यापक होते हुए भी स्वतंत्र होती है।


आँखें मन की हर बात को बयान करती हैं, पर कृष्ण की दृष्टि, वे अनंत आँखें जो मनुष्य की हर चाह को पहचानकर भी उससे ऊपर दिखती हैं। यही कारण है कि उनके साथ का अनुभव व्यक्तिगत होते हुए भी सार्वभौमिक है। कोई उन्हें अपना सबसे निजी साथी मानता है, तो कोई उन्हें ब्रह्म का विराट स्वरूप।


अंततः यही लगता है कि प्रेम बाँध सकता है, पर परमात्मा बंधन से परे है। वे प्रेम के भूखे हैं लेकिन अपनी चेतना में उतने ही अडिग। आँखें मनुष्य की चाह को जग जाहिर कर देती हैं, और कृष्ण उस चाह का उत्तर भी बन जाते हैं। परंतु कृष्ण का निर्लिप्त भाव हमें यह सिखाता है कि संसार में रमण करते और जीवन का रस लेते हुए भी आसक्ति से मुक्त रहा जा सकता है। यही आत्मा और परमात्मा का परम स्नेह और संतुलन है। 


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