बचपन को आज़ाद कराओ



देश रोजाना दैनिक अखबार में 15 अगस्त 2025 को प्रकाशित 


   बचपन को आज़ाद कराओ   

हर साल पंद्रह अगस्त का दिन पूरे देश को आज़ाद उमंगों में डुबो देता है, तिरंगे की चमकती धारियाँ, हवा में गूंजते देशभक्ति गीत, स्कूलों के मंच पर झूमते बच्चे और चारों ओर गूंजते स्वतंत्रता के भाषण। लेकिन इस जश्न की गहमागहमी में हमें एक और कैद पर भी सोचना होगा, एक खामोश कैद, जो लोहे की सलाखों से भी मजबूत है। यह है तकनीकी डिजिटल जेल, जिसकी चाबी किसी जेलर के पास नहीं, यह कैद मोबाइल स्क्रीन की है, जिसमें देश का अबोध बचपन धीरे-धीरे कैद हो रहा है।


जहाँ कभी बच्चे गली-गली दौड़ते, मिट्टी में घुटनों तक धँसते, पेड़ों पर चढ़कर कच्चे आम तोड़ते, पतंगबाज़ी में चीखते-गाते थे, वहीं आज उनका बचपन मोबाइल स्क्रीन की हलचल तक सिमट गया है: गेम का लेवल पार करना, शॉर्ट वीडियो में खो जाना, और देर रात तक टिमटिमाती रोशनी में आँखें गड़ाए रहना।


इतिहास में पढ़ा जा सकता है कि अंग्रेज़ी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने के लिए भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नौजवानों ने अपने सपनों को देश की आज़ादी से जोड़ दिया था। तभी आज के बच्चे किसी तानाशाह की जेल में नहीं, आज़ाद जन्म लेते हैं। लेकिन जन्म लेते ही एक अदृश्य तकनीकी सत्ता में जकड़ जाते हैं। यह सत्ता उनके कोमल मन, कल्पना और सहजता पर धीरे-धीरे कब्जा कर लेती है।


मनोवैज्ञानिक डॉ. अर्चना माथुर बताती हैं कि लगातार स्क्रीन पर टिके रहने से बच्चों के मस्तिष्क में डोपामिन का असंतुलन हो जाता है, और वे तुरंत संतुष्टि पाने के आदी हो जाते हैं। छोटी-सी देरी या असफलता उन्हें चिड़चिड़ा बना देती है। बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. संदीप सक्सेना चेतावनी देते हैं कि यह आदत नींद, आंखों और पूरे शरीर पर असर डालती है—थकान, मोटापा, पीठ और गर्दन के दर्द तक बचपन के हिस्से में आने लगे हैं।


खतरा यह है कि इस कैद का एहसास बच्चों को खुद नहीं होता। माता-पिता भी अपनी रोज़मर्रा की भौतिक व्यवस्थाओं की व्यस्तताओं में इतने उलझे रहते हैं कि समझ ही नहीं पाते क्या हो रहा है, वे अपने बच्चे का भविष्य खुद बिगाड़ रहे हैं। मोबाइल में उलझा बच्चा पढ़ाई को बोझ और दोस्तों से मिलने-जुलने को बेकार समझने लगता है। यह स्थिति कुछ वैसी ही है जैसे औपनिवेशिक शासन ने कभी हमारी शिक्षा और संस्कृति को अपने रंग में ढाल दिया था।


तो सवाल यह है, इन डिजिटल बेड़ियों को कौन तोड़ेगा? क्या कोई नई क्रांति का बिगुल बजेगा? क्या माता-पिता, शिक्षक और समाज मिलकर इसकी जिम्मेदारी लेंगे? जिस तरह मोबाइल ने टीवी, रेडियो, महफिलें, बैठकें, खेल, सब पर कब्जा कर लिया, उसे हराने के लिए भी वैसी ही संगठित ताकत चाहिए।


इस स्वतंत्रता दिवस पर तकनीकी गुलामी से मुक्ति के लिए हम सब छोटे-छोटे कदम उठा सकते हैं। जैसे रोग बढ़ने पर बॉडी डिटॉक्स करते हैं, वैसे ही “डिजिटल डिटॉक्स” भी ज़रूरी है। शुरुआत एक घंटे की डिजिटल फास्टिंग से करें, उसके फायदे बच्चों को बताएं, और जब वे रुचि लेने लगें तो सप्ताह में एक दिन डिजिटल फास्ट अनिवार्य कर दें।


याद रखें, यह सिर्फ बच्चों के लिए नहीं, बड़ों के लिए भी है। माता-पिता खुद मोबाइल से दूरी बनाएंगे तभी बच्चे संतुलन सीखेंगे। घर में स्क्रीन टाइम के नियम साफ़-साफ़ लिखकर लगाएँ। स्कूल से अभिभावक मांग करें कि हफ्ते में एक दिन डिजिटल डिवाइस-रहित पढ़ाई हो। अनेक दिवस मनाए जाते है। अब एक और दिवस की शुरुआत करें। “गुरुकुल दिवस” मनाने की बात प्रत्येक अभिभावक। विद्यालयों  में जाकर रखें। मोहल्लों में खेलकूद और कला से जुड़ी गतिविधियाँ कराएं ताकि बच्चे फिर से मिट्टी की खुशबू और दोस्त के साथ मानवीय गुनगुनाहट महसूस कर सकें।



आज़ादी का अर्थ केवल विदेशी ताकत से छुटकारा नहीं, बल्कि हर तरह की बुरी आदत की गुलामी से मुक्त होना है। तिरंगे की असली चमक तभी लहराएगी जब देश का बचपन मोबाइल की जंजीरों से आज़ाद होगा।

इस पंद्रह अगस्त तिरंगे के साथ एक संकल्प लें—बचपन को मोबाइल से आज़ाद करो। यही अगली पीढ़ी को हमारी सबसे बड़ी आज़ाद भेंट और सबसे बड़ी चेतन क्रांति होगी।





“लेख में स्वतंत्रता दिवस की पृष्ठभूमि के साथ डिजिटल युग की सबसे बड़ी समस्या—बचपन का मोबाइल और स्क्रीन में कैद हो जाना—पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई है। विशेषज्ञों की राय, माता-पिता और समाज की जिम्मेदारी, तथा समाधान के रूप में ‘डिजिटल डिटॉक्स’ और ‘गुरुकुल दिवस’ जैसी पहलें इस लेख को अत्यंत प्रासंगिक और व्यावहारिक बात है। यह लेख पाठक को चेतावनी भी देता है और सकारात्मक दिशा भी दिखाता है।”


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