अभिभूत है जीवन मेरा
पिता पेड़ की वह फुनगी हैं
जिसको हमने छू ना पाया ।।
झुक आते हैं सूरज-चन्दा
नम नदिया के शीतल जल पर
लेकिन पिता नहीं झुक पाते
ममता के गीले इस्थल पर
आकाशी गंगा के वासी
उनका पता नहीं मिल पाया ।।
चट्टानें भी ढह जातीं जब
उग आती है उन पर धनिया
उनका मन हीरे का टुकड़ा
बुद्धि बनी है चालू बनिया
रही पूजती ख़ामोशी को
फिर भी दर्शन न हो पाया ।।
मेरे भीतर हैं वे हर पल
फिर भी उनको ढूंढ न पाई
कौन घड़ी में विधना तूने
ऐसी अनगढ़ भीत उठाई
अभिभूत है जीवन मेरा
उसने पाया उनका साया ।।
***
पिता को समर्पित एक भावभीनी रचना...!
ReplyDeleteपिता को समर्पित एक भावभीनी रचना...!
ReplyDeleteपिता को समर्पित एक भावभीनी रचना...!
ReplyDeleteवाह , आपकी अभिव्यक्ति में अनूठापन है .
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१०-१०-२०२०) को 'सबके साथ विकास' (चर्चा अंक-३८५०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
आप सभी सुधी साहित्यप्रेमियों और अनीता सैनी जी को हार्दिक आभार!!
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteरही पूजती रही खामोशी को फिर भी दर्शन हो ना पाया। उम्दा प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआप सभी को हार्दिक आभार मित्रो !
ReplyDelete