शब्दों का देश

 


आवरण कथा 

"आओ आवरण बाँचें" में #राकेश_मिश्र जी की नव लोकार्पित कविता पुस्तक #शब्दों_का_देश के आवरण और शीर्षक चयन पर कुछ बातें की जाएं।

नदियों का देश, पहाड़ों का देश, वृक्षों का देश, पठारों का देश, बर्फ़ का देश आदि आदि वे स्थान प्राकृतिक संपदाओं में निर्दिष्ट किए हुए स्थान होते हैं। उक्त किसी भी देश के आगे लगे हुए विशेषण शब्द को पढ़कर हम आराम से जान लेते हैं कि उस देश में नदी, पहाड़, वृक्ष, पठार, बर्फ़ की भरमार होगी। कोई भी कोना उक्त उपादानों से रिक्त न होगा। अब यदि बात करें "शब्दों का देश" तो त्वरित उपर्युक्त की तरह ही ख्याल आता है कि जैसे प्राकृतिक उपादानों के देश को धरती माता अपने अंचल में समेटे हुए हैं वैसे ही शब्दों के देश को मानव मन सम्हाले रहता है।

शब्दों का देश बाहर नहीं मनुष्य के भीतर सजता है। शब्द मानव मन की डालियों पर लगते हैं। वहीं लगे-लगे वे पकते भी और सड़ते भी हैं। शब्दों के प्रकार से शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा। जिसके हिस्से में जैसे शब्द फल आते होंगे वही उसके स्वाद को ठीक से बता पाता होगा। बस कच्चे और सड़े शब्द फल किसी के भी हिस्से न आएं वो ही अच्छा।

वैसे तो संसार का पसारा शब्दों में ही निहित है। लेकिन फिर भी एक साधरण इन्सान से ज्यादा एक कवि के हिस्से आए हर किस्म के शब्द फल बोलते बहुत हैं। कवि के पास आए शब्द उसके एक कान का उपयोग करके दूसरे से नहीं निकलते बल्कि सीधे कवि हृदय के सरोवर में डुबकी लगा लगाकर तैरने लगते होंगे जब तक कि कवि पूरी तरह से भीग नहीं जाता होगा।

प्रशासनिक सेवा में तत्पर प्रशासनिक अधिकारी राकेश मिश्र जी ने अपने कविता संग्रह का शीर्ष नाम "शब्दों का देश" चुना है। वे शब्दों से एक अधिकारी जितना ही विवेकपूर्ण काम लेना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जब वे अपने दैनिक जीवन में मौन होकर दुनिया को दूर से देखना चाहें तो उनके शब्द दुनिया से मुठभेड़ ले सकें। जब कोई बच्चा रास्ता भटकने लगे तो उनके शब्द सुरक्षित उसको उसकी देहरी के भीतर तक छोड़ आएँ। ऐसा लगता है कि मिश्रा जी ने कविता में शब्दों का प्रयोग नहीं किया बल्कि शब्दों में कविता पिरोई है। शब्दों का देश की कविताएं सांद्रता से हँसी ठठ्ठा करती हैं। धोखेबाज को वैसे ही सबक सिखा जाती हैं जैसे चुराया हुआ बिस्कुट चाय में डूब कर भूखे को ईमानदारी सिखाता है। हमें जितना पांडित्य नहीं लुभाता उतना भोलापन हँसकर हमारे होस ठिकाने लगा जाता है।

खैर,पुस्तक के आवरण सज्जा करने वाले कलाकार ने यानी कि चित्रकार ने मिश्र जी के शीर्षक शब्दों को लय देने के लिए देश शब्द से गहरा सगापा रखने वाले प्राकृतिक उपादानों में से वृक्षों को ही चुना है क्योंकि चित्रकार जानता था नदियों ज़रूरत पड़ने पर पीछे लौट नहीं सकतीं। पहाड़ों अपने अहम में अडिग हैं वे झुक नहीं सकते। बर्फीले मैदानों में हरापन उगना असंभव है और पठार शब्दों की उर्वरकता ही चाट जाता। इसलिए चित्रकार ने वृक्षों को चुना। ध्यान देने वाली बात ये है कि हमारे शब्द यानी कि ध्वनियां हाव के कांधों पर सवार होकर एक कान से दूसरे कान तक का सफ़र तय करती हैं। इसलिए चित्रकार शब्दों के देश को त्वरा देने के लिए हरे भरे पादपों का चयन करता है।

चित्रकार जानता था कोई और चित्र शीर्षक के आपे को पूरा का पूरा शब्द रंग से भर ही नहीं सकेगा। जिस प्रकार पेड़ हरियाली के पर्याय होते हैं उसी प्रकार शब्द मानवीय सुख दुःख, पीड़ा और प्रेम के द्योतक होते हैं। जैसे वृक्ष पत्रों से हम द्वार तोरण बनाकर अपना घर सजाते हैं। उसी प्रकार से सुन्दर शब्दों से हम अपने आपे को सजा लेते हैं। पृथ्वी का छोटा से छोटा खाली भू-भाग हवा से पूरित होता है। हम महसूस कर सकें या नहीं लेकिन पवन रूपी घटक के घनत्व को पेड़ और भी बढ़ा देते हैं। जब पवन डोलता है तो हमारे प्राण प्रफुल्लित हो शक्ति का अनुभव करते हैं। उसी प्रकार शब्द कम मानीदार नहीं होते हैं इस बोलते जगत में। इस मुखरित संसार में शब्द ही जादू रचते हैं। प्रेम के मेले और युद्ध के नगाड़े शब्दों के दम पर ही कायम हैं। शब्द मुर्दा में प्राण फूंकने का काम करते हैं और शब्द ही एक स्फूर्तिवान व्यक्ति को अवसाद के खंडहर में धकेल सकते हैं। जैसा कि बहुत पहले मानवता के डॉक्टर कबीर कह गए हैं।

"ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।"

उसी प्रकार राकेश मिश्र जी ने "शब्दों का देश" में मानव के जीवित रहने की अनेक संभावनाएं भरकर हमारे सामने एक जीवंत दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है। भला मिश्र जी से ज्यादा शब्दों के मूल्य को कौन जानता होगा क्योंकि उनकी सुबह और शाम, दोपहर और रात बोलते, चीखते, घिघियाते, ललकारते, पछताते, डराते, बौखलाते, सांत्वना देते शब्दों के आंगन में जो बीतती हैं। दरअसल कविताएं हमारे अंतर के कोहराम को लिपिबद्ध करने का एक अनोखा साधन होती हैं। तभी तो जब हम बेहद व्यग्रता से भरे होते हैं और शांत होने का साधन या साधना हमारे पास नहीं होती तब हम कविता की शरण में चले जाते हैं और जैसे ही मन की गाठें कागज़ पर कविता के रूप में उतर आती है हम हल्के हो जाते हैं।

सर्जना के इन क्षणों में जिसका जितना अंतर्मन सजग होगा उतना ही वह द्रवित होगा और जितना वह द्रवित होगा उतना ही वह नीति और अनीति के प्रति सहज होगा और जितना वह सजग हुआ उतना ही वह अपने मासिक उद्वेलन को मुखरित करने के लिए शब्दों का जामा पहना सकेगा। इस पुस्तक के कवि ने ऐसे तमाम दृश्यों को कविता में बांधा है जो साधारण व्यक्ति की दृष्टि विपन्नता के कारण हमेशा छूट जाते होंगे।

इन्हीं शब्दों के साथ कवि को अनेक अनेक शुभकामनाएं और बधाई!!

कल्पना मनोरमा 

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