अन्तस_की_खुरचन

"आओ आवरण बांचें" में आज यतीश कुमार जी की नव काव्य कृति अन्तस_की_खुरचन

खुरचन आह! हलवाई खुरचन के पैसे अलग रख कर अपनी गुड़िया के लिए जादुई पेंसिल ले जाता है। सब्ज़ी वाला खुरचन की सब्ज़ी के पैसों से पान खरीद कर खाता है। मां भी खुरचन खाकर कटोरी भर रबड़ी का स्वाद ले लेती है। पैसे के लेनदेन में भी खुरचन का बड़ा महत्त्व है।

खुरचन शब्द का आशय है सम्पूर्ण के बाद मिलने वाला अतिरिक्त तात्विक सुख।

खुरचन शब्द ने मुझे खासा आकर्षित किया। बचपन में कटोरी भर रबड़ी खाने से जितना संतोष नहीं मिलता था उससे कहीं ज्यादा आन्नदानुभूति कढ़ाई के किनारों पर लगी दूध की कड़ी कड़ी परत को जब मां खुरचने बैठती थी तब उस खुरचन पर दादी की भी निगाह होती थी और भाई बहनों की भी। जिसे प्राप्त हो पाती थी वही तृप्त होता था बाकी ललचाता कुढ़ता रह जाता था।

खैर,यतीश जी यहां कोई खीर और रबड़ी की खुरचन की बात नहीं कह रहे हैं। वे तो अन्तस चेतना में उत्पन्न हुए काव्यरस की बात कर रहे हैं। जिसमें कविताएं पकाई जाती हैं। समझने की बात तो ये है कि हमारे आपके सामने जो काव्य कृति आने वाली हैं उसमें काव्यात्मक उबलन या हल्कापन नहीं है। हालाँकि काव्य अपने अमूर्तन में हमारी दैनिकी की यथार्थ चेतना, सौंदर्यबोध, भाषा की भंगिमाएं काव्य प्रकटन में घुली मिली होती हैं। फिर भी यतीश कुमार का कवि तत्व कविता लिखने से पहले तैयारी करता है।

उसकी हृदयरूपी कढ़ाई के किनारे पर लगे भाव पहले कवि के साथ गहरा काव्यात्मक अनुबन्ध रचते हैं। उसके बाद किसी हरसिंगार के झरने की आहट से कविता प्रस्फुटित होती है। कहने का तात्पर्य ये है कि यतीश कुमार जी ने काव्य रस से खदकती मन की बटलोई से दौड़ झपटकर चुल्लूभर रस लेकर तुरत फुरत कविताओं में नहीं ढाला है। बल्कि उन्होंने मन की बटलोई में खौलने खदकने वाले काव्यमय दृश्य परिदृश्य की भावनाओं को हृदय की कढ़ाई में उलट कर तसल्ली से ओंटा है।

समय के असंतुलन को बारीकी से परखा है। काव्यरस की कढ़ाई के नीचे आंच का बंदोबस्त भी बेहद संतुलित और चौकन्ने होकर किया है। उसके बाद भी हृदय की कढ़ाई की तली में जो गाढ़ी सामग्री बचती है, उसको न लेते हुए अन्तस की खुरचन को कविताओं के लिए स्वीकारा है।

अन्तस की खुरचन की कविताऐं पढ़ने वाला पाठक जब कविताओं का पाठ करता है तो उसे बैलों की घंटियों और रहट के पीपों से उलझते पानी जैसा शोर नहीं बल्कि किसी अल्साये नवशिशु के पांवों में पहने नूपुर सी रुनझुन ठहराव के साथ सुनाई पड़ती है।

यतीश जी की कविताएं दुनियावी हल्ला गुल्ला को समय के कानों में जैसा का तैसा न बोलकर बड़े सांद्रा और आत्मीय ढंग से बोलती हैं। आपकी कविताएं इस बुरे समय को सबक सिखाने में चाहे सक्षम न हो लेकिन एक टीस जरूर छोड़ जाती हैं।

चित्रकार ने भी भावों जो नीड़ बनाया है, उसके रंग और आकृति शीर्षक की अर्थवत्ता को और बढ़ा रहा है।

इन्हीं शब्दों के साथ यतीश कुमार जी को उनकी कृति अन्तस_की_खुरचन के लिए और चित्रकार को अनेक शुभकामनाएँ! 

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