मान्यताओं की आँच

चित्र : अनुप्रिया 


"आओ संतो! आज कहाँ से सूरज निकल पड़ा?" धनक सिलाई मशीन रखे कपड़े सिल रही थी,बोली।

"अरे जिज्जी! मरने की भी फुरसत ना मेरे कों।संतो ने बिटिया का कुरता धनक की ओर बढ़ाते हुए कहा।

"ऐसी कहाँ से नोटों की पौ फट पड़ी है तेरे घर जो व्यस्त हो गयी?" धनक ने सुई में धागा डालते हुए कहा।

जिज्जी, मेरी सास नाती की मेंड उठावे गंगा जी नाहवे जा री है।संतो ने साफई दी। 

"सास जा रही है?”

हाँ जिज्जी!” 

तो तूने क्यों उठना-बैठना तज दिया?” धनक ने खरखराते हुए मशीन चला दी।

"जिज्जी सो तो तुम सही कह रही हों लेकिन मेरी सास के प्राण मायके में बसते हैं। बस दाल, अचार,बड़ी,पापड़ बना-बनाकर मर री हूँ मैं।" संतो ने साड़ी का पल्ला सिर पर सहेजते हुए कहा। 

"इसका मतलब तेरी सास मायका घूमने जा रही है।" मुस्कुराते हुए धनक ने तंज कसा।

"हाँ जिज्जी, ऐसा ही समझ…।"

"तो सास से भी थोड़ा बहुत काम ले लिया कर संतो।"

"ना जिज्जी उनके छोरा से तो आप मिली ही हों?"

हाँ तो।"

"सनातनी के पप्पा कहते हैं कि हमाईं अम्मा के अब आराम के दिन हैं सो अब वे कुछ नहीं करेंगी।"

"और तू लोहे की है। घर बाहर सब देखेगी? संतो तुम्हारा आदमी तुझे पागल बना देगा। अच्छा जाने दे, ये बता क्या तू और सनातनी भी गंगा नहाने जा रही है?"

"कैसी बातें करती हों जिज्जी। हम लोग…? कभी नहीं।" उदास चेहरा से पसीना पोंछते हुए उसने कहा।

"उसमें इतना क्या सोचना संतो! जब तेरा मर्द अपनी माँ और बेटे को ले जा रहा है तो तुम दोनों भी उनके साथ लटक लो। हवा पानी बदल जाएगा।

"एक बात कहें जिज्जी,अपने समाज में सतिया घी के पूजे जावे,माटी के ना।आँख की कोर से लटक आए आँसू को तर्जनी पर लेकर संतो ने हवा में छिटक दिया।

संतो तेरी बात कभी-कभी मेरे पल्ले न पड़ती री!धनक मशीन रोक कर बोली।

"जिज्जी, जिसके मन में दरिद्रता भरी होवे वह छोरी को बासी रोटी ही समझे हैं! और बासी रोटी को कितना सम्मान मिले, वो सब जाने हैं!" बिना पढ़ी संतो कुछ ऐसा कहकर चली गयी जो धनक के कानों में गूँज उठा। उसका मन काम से उचट गया तो वह मशीन के आस-पास पड़ी कतरन झाड़कर उठाने लगी। संतो जिस अखबार में बिटिया का कुरता लपेट कर ठीक कराने लाई थी, उसी में कुछ अक्षर दमक रहे थे,“संवेदनाएँ शिक्षा की मोहताज़ नहीं होतीं।" धनक गहरी सोच में डूब गयी।

 ***


नागपुर : लोकमत समाचार में प्रकाशित 



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