पुल माटी के
टूट रहे पुल माटी के सब
उजड़ गये जो तगड़े थे ||
नई पतंगें लिए हाथ में
घूम रहे थे कुछ बच्चे
ज्यादा भीड़ उन्हीं की थी
थे जिन पर मांझे कच्चे
दौड़ गये कुछ दौड़ें लम्बी
छूट गये जो लँगड़े थे ||
महँगी गेंद नहीं होती है
होता खेल बड़ा मँहगा
पाला-पोसा मगन रही माँ
नहीं मंगा पायी लहँगा
थे अक्षत,हल्दी,कुमकुम सब
पैसे के बिन झगड़े थे ||
छाया-धूप दिखाई गिन-गिन
लिए-लिए घूमे गमले
आँगन से निकली पगडंडी
कभी नहीं बैठे दम ले
गैरजरूरी बने काम सब
चाहत वाले बिगड़े थे ||
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अच्छा नवगीत कल्पना मनोरमा जी आप निरन्तर कुछ न कुछ रचती रहती हैं।
ReplyDeleteआपको बहुत बधाइयाँ
बहुत सुन्दर
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