दस दोहे
संध्या
बोली नेह से,जाओ पी परदेश
पौ फटते ही लौटना,निज गोरी के देश ||
अंधकार
को पीसकर,करता स्वर्ण समान
सविता के आलोक में, दिन है आयुष्मान ||
स्वर्णकार
दिनकर बना, कूटे कालिख़ ऱोज
फिर भी तन है ऊजरा,मन में रखता ओज ||
रजनी
के संगी हुए, दीपक, जुगनू-चाँद
पर्वत की तम घाटियाँ,आती निशदिन फाँद ||
दिन
बनता जब यामिनी,तजता रूप उजास
तारों के संग बिचरता,बन चंदा का ख़ास ||
जितने
चाहो बार लो,दीपक स्वर्ण समान
कण-कण रोशन हो तभी,निकले जब दिनमान ||
कलपुर्जों
ने छीन ली, बच्चों की मुस्कान
चाचा-ताऊ बन गये, नेह छोड़ शैतान ||
क़ागज
कहता शब्द से, सुन रे मन की पीर
छूती है मसि-कलम जब ,बनती तब तकरीर ||
कविता
को कवि ढूंढ़ता, करता दिन-दिन ख़ोज
कभी न मिलती वर्ष भर,कभी मिले हर ऱोज ||
समय
सरौता हाथ ले,घूम रहा हर ओर
हाथ-सुपारी गिरी जो, कतरेगा बिन शोर ||
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