इत्ती-सी ख़ुशी
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चित्र : अनुप्रिया |
सातवीं मंजिल से मैं नीचे झाँक रही थी। कामायनी सोसायटी के पार्क का मनभावन दृश्य, धूसर हो चुकी मेरी आँखों के लिऐ भोर की नरम ओस जैसे लग रहे थे। सौन्दर्य का यह व्याकरण केतन के पिता के साथ देखती तो कितना सुंदर और लगता! नियति के आगे किसी की चलती नहीं। वर्तमान की खूबसूरती देखते-समझते हुए मैंने पलट कर अपनी ओर देखा तो मेरी गरीब चीज़ें बड़ी बदरंग और अनमनी लगीं। जल्दी-जल्दी उदास-पुरानी वस्तुओं को धकेलकर मैंने बाउंड्री के किनारे धकेल कर ढक दिया। दो-चार पौधों वाले गमलों को बालकनी की दीवार पर रख दिया ताकि आठवीं मंजिल से जब लोग हमारी ओर देखे तो हम उन्हें अच्छे दिख सकेंगे। "बाहर से सुंदर दिखना ही आज का मूलमंत्र है, है न!" विचारते हुए मैंने फिर से नीचे देखा।
एक महिला इंग्लिशी परिधान में लिपटी हुई लिफ्ट से निकलकर गाड़ी में बैठी और फ़ुर्र हो गयी। ये ज़रूर बाज़ार गयी होगी। दिवाली के दिन चल रहे हैं न! "क्या मुझे भी धनतेरस कुछ खरीद लेना चाहिए? वैसे तो न जाने कब से जिंदगी की मीनमेख ने मुझे कभी कुछ खरीदने नहीं दिया। पति की छोटी-सी नौकरी में बेटा पढ़-लिख गया वही क्या कम है! लेकिन अब बेटे ने दुनिया की ख़ुशी हमारे लिए सुरक्षित कर ली है। तो क्या सच में एक कटोरदान ले लूँ? जो वृंदा मौसी के घर देखा था…।" विचारों में उथल-पुथल के बाद भी कोई ढंग का निर्णय न ले सकी थी। अभिलाषा का ताप जब मन को चारों खाने तपाने लगा तो बालकनी में पड़ी कुर्सी में बैठ धीरे-धीरे शाम का उतरना देखने लगी। जीवन की उपेक्षाओं के किनारों पर मन जब कुछ शांत हुआ तो अचानक कान हरकत में आ गए। घर के अंदर से दो पुरुषों की अजीब आवाज़ें आ रही थीं।
"मेट्रो
सिटी में रहने के अपने ही दुख होते हैं भाई। स्याला कभी दुख कम होता ही नहीं।"
"क्यों भाई! क्या हुआ?"
"अरे! ये पूछो क्या नहीं हुआ? यहाँ
न चैन से जिया जा सकता है और न ही मरा। जब देखो नंगी तलवार गर्दन पर लटकती रहती है।"
"हाँ, ये तो है। अब देखो न! अभी त्योहार की मार है फिर बच्चों के स्कूल के लिए गरम कपड़ों की चीख-पुकार मच जायेगी। कुछ समझ नहीं आता।"
"वही तो मैं कहता हूँ। दिन-रात दीवारों से सर लड़ाने के बाद भी मामला गुड़ सत्तू ही रह जाता है।"
".........."
दो लोग आपस में पता नहीं कैसी बातें करते जा रहे थे। एक दूसरे के साथ वाद-विवाद में उलझी दो आवाजों में से अबके मोटी आवाज़ में किसी ने कहा,"गाँव से अपने सिर पर पाँव रखकर शहर की नियत समझे बगैर हम भागकर चले ज़रूर आते हैं, पर अपना और अपनों का चैन अंजाने ही खो बैठते हैं।"
"तू ठीक कहता मोहना! अगर अपने संस्कार और संस्कृति के साथ जीना भी चाहो तो बृहस्पतिवार की लोई के लिए गाय नहीं मिलती, नवरात्रियों में कन्या-भोज के लिए कन्याएँ नहीं मिलतीं और दान-पुण्य के लिए सच्चे जरूरतमंद नहीं मिलते। जो मिलते हैं, वे भी जुआरी-शराबी।जिनको कुछ देना मतलब उनके परिवार को विपत्ति में डालना…हे हे हे।"
"चल छोड़ो
यार! आज तो अपनी जमेगी न?"
"माने?"
"आज़ इंग्लिश चलेगी न!"
"अरे हाँ, क्यों नहीं। त्योहार है भाई!"
जब दोनों
आवाज़ें कुछ थमी तो कुछ खुसरफुसर के बाद खिखियाकर हँसने का सम्मिलित स्वर गूँज उठा। अब अपनी जगह बैठे रहना मुझे
मुश्किल लगने लगा था। डरते हुए झपट कर अंदर झाँकते हुए मैंने बेटे से पूछा।
"केतन, ये कौन है? बड़ी अजीब-अज़ीब बातें करता जा रहा है, उतनी देर से।"
"अम्मा! आपको बताना भूल गया। मैंने आज इलेक्ट्रीशियन को बुलाया है। वही अपने हेल्पर से बातें कर रहा है। करने दो।" बेटे ने पास आकर धीरे से कहा।
"अच्छा! लेकिन बड़ी अलग-सी बातें कर रहे हैं दोनों। हमें तो डर लगता है। हम लोग नए हैं यहाँ।"
"धीरे बोलो अम्मा! हम नए हैं लेकिन ये लोग सोसायटी में बहुत पुराने हैं। अब आप गलियों वाली बस्ती में नहीं, एक
संभ्रांत सोसायटी में रह रही हो तो यहाँ के नियम भी सीखने पड़ेंगे। अच्छा चलो इसे छोड़ो, आपके छालों की दवा दिलवा लाता हूँ। देर होगी तो बाज़ार में ठेलम-ठेल मच जाएगी।" मुझे अपनत्व से समझाकर बेटा तुरंत भीतर की ओर मुड़ गया।
"अम्मा
जल्दी करना। मैं तैयार होने जा रहा हूँ!" उसने तत्परता से फिर दोहराया।
"हाँ हाँ, ठीक है। इन्हें जाने तो दो!"
“ओके! ठीक है।” बेटे ने हँसकर कहा और दीवार पर लगी अपनी पसन्द की पेंटिंग को पोंछने लगा
"अब चलो अम्मा! वे लोग चले गये।“
“अच्छा, कौन-से कपड़े पहनूँ?"
"जो आपको
पसंद हो।" बेटे ने कमरे की खिड़की बंद करते हुए
कहा।
"बस दो मिनट दो, अभी चलती हूँ।" कहते हुए मैंने अलमारी खोली तो एक तोतयी रँग का कुरता मेरे हाथ में आया। उलट-पलटकर देखा और जल्दी से उसे वापस रख दिया। इसे अब बाहर नहीं पहनूँगी, पहले की बात और थी, बेटे को अच्छा नहीं लगेगा। सोचते हुए एक ठीक-ठाक साड़ी निकालकर पहन तो ली लेकिन परेशानियों के बीच गुजरे जीवन और केतन के पिता की यादों के कई-कई वाकये याद आने लगे तो मन अशांत हो गया। घर से निकलते हुए बेटे ने टोक दिया,"क्या बात है अम्मा? आप इतनी चुप क्यों हो गयीं? सब ठीक तो है? छाले में क्या ज्यादा दर्द है?"
"नहीं तो, जब उम्र बढ़ने लगती है तो चिंताओं की सूची बनिये के ब्याज जैसी हो जाती है, कहना था। लेकिन कहा, कुछ ख़ास नहीं।“
दो कदम आगे बढ़ाते हुए उसने कहा,"अम्मा! मुझे कुछ गैस्टिक जैसी फ़ील हो
रही है, लिफ्ट की जगह सीढियाँ ले लें?" सोचा बच्चे ने इतने मन से हमारे
सीढि़यों वाले जीवन में लिफ्ट को प्रगटाया है तो क्या हुआ! चलो उसके कहने का मान
रख लेती हूँ। किन्तु मेरे घुटनों ने सिरे से इनकार कर दिया और हम चुपचाप लिफ़्ट से
उतर गए।
"सारा दिन
कम्प्यूटर से चिपके रहते हो। गैस नहीं बनेगी तो और क्या होगा? थोड़ा-बहुत घूम-टहल लिया करो!" कह कर मैंने उसकी बात न मानने की अपनी ग्लानि थोड़ी कम करने की कोशिश
की।
बेटा
ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और मैं उसकी बगल में। हम गेट पर पहुँचे तो सलाम कर गार्ड
ने गेट खोल दिया। अब गेट खोलना तो उसकी ड्यूटी बनती थी लेकिन सलाम ठोकने की क्या
जरूरत थी? गाड़ी चल रही थी सो सड़क पर पहुँचते ही
रफ़्तार में आ गयी।
मैंने सोचा, जाने दो जिसको जो करना है करे, मुझे क्या? लेकिन फिर
एक अजीब-सी जिद्द उठकर मेरे दिमाग को खटखटाने लगी और मैंने बोलना नहीं खीझना शुरू कर दिया।
"गार्ड से कह देना, जिसे पसंद हो, उसे सलाम किया करे। कम से कम मुझे तो न ही करे। उम्र देखी है उसकी! मेरे पिता के बराबर होगी। और तुम! गाड़ी ज़रा आराम से चलाया करो! साहब होगे सब के लिए, मेरे लिए वही केतन हो जो कंधे से लटक-लटक कर टॉफी माँगा करते थे।" एक साँस में बहुत कुछ कहते हुए स्टेयरिंग पर हाथ रख मैं जबरजस्त भड़क उठी। लेकिन उसने मुस्कराकर अपने माथे पर पड़े बालों को सम्हालते हुए कहा। "जब तुम मेरे साथ हो तो न मुझे कुछ होगा और न ही गाड़ी को। और हाँ,ये 'मिडिल क्लासियत' छोड़ो अम्मा।" कहकर होंठो को गोल-गोल बनाकर सीटी बजाने लगा। उसका आख़िरी वाला वाक्य शायद गार्ड वाली बात के लिए था।
दौड़ती हुई गाड़ी थोड़ी-सी स्लो चलने लगी थी। मुझे लगा बेटे पर मेरे कहने का गाढ़ा असर हुआ है लेकिन मैं गलत थी। गाड़ी लाल बत्ती पर रुकने के लिए स्लो हुई थी। और देखते-देखते हम कतारों में आ गये थे। “ये नज़ारा कभी टी.वी पर देखा करती थी। आज अपनी गाड़ी में हूँ।“ सोचते हुए बेटे पर नाज़ हो आया। खिड़की की तरफ़ वाले हैंडिल को पकड़ बाँह पर सिर टिका लिया। “कोई-कोई बात सार्थक होने में आदमी की तिहाई जिंदगी खपा लेती है।“ सोचते हुए जितना सामने से नजारा देख सकती थी देखने लगी क्योंकि घर से बाहर निकल कर ज़्यादा चकमक करना भद्रता की निशानी नहीं होती। केतन के पिता के द्वारा मुझे कई बार समझाया जा चुका था।
“धप्प धप्प धप्प” खिड़की के काँच पर पड़ने वाली धप-धप से मेरी तन्द्रा टूटी तो देखती हूँ एक लड़की मैले-कुचैले कपड़े,उलझे बाल और पपड़ाये होंठ लिए एक मरघिल्ला-सा उघारे बदन बच्चा काँख में दबाये, बार-बार मेरी ओर कुछ माँगने के अंदाज में दाँत निकाल रही थी। बिना देर किए मैं पर्स से सिक्के वाली थैली निकालने लगी जो मैंने इन्हीं जैसों के लिए बना रखी थी। बेटे ने घूमकर मुझे देखा,"प्लीज़ अम्मा! कुछ देना मत।”
“क्यों?”
“अरे इनका
तो ये धंधा है।“
उसकी ओर से आया अप्रत्याशित वाक्य सुनकर मैं धक्क से रह गयी। मन ग्लानि से भर गया। मेरे उसके साथ होने की ख़ुशी छिटक गयी। बेटे के ऊपर मुझे क्रोध हो आया। इसको अगर ऐसा बोलना ही था तो तुलसी बाबा को लिखना ही नहीं चाहिए था। 'तुलसी पंछिन के पिये,घटे न सरिता नीर। धरम करें धन न घटे,जो सहाय रघुबीर।' अपने ग्रन्थों से युवाओं का न जुड़ना और समय की बे-अदबी पर भारी खिन्नता उमड़ पड़ी। "ख़ाक हम विकसित हो रहे हैं। क्या विकसित होना किसी की जरूरत को अनदेखा करना होता है? ये मेरा बच्चा, इतना कम भी नहीं कमाता है और इसकी नियत देखो!” सोचते हुए मन में विक्षोभ के साथ क्रोध उबल पड़ा।
“अपनी बनाईं परम्पराएँ जब अपने ही तोड़ते हैं तो आवाज़ नहीं आती लेकिन दिल जार-जार रो पड़ता है।" मैंने अपने आप को सांत्वना देने की चेष्टा की।
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चित्र : अनुप्रिया |
"क्या बोला
अम्मा? और तुम उसी बात को क्यों पकड़े बैठी हो? थोड़ा प्रेक्टिकल बनो।" उसकी इस
बात पर मुझे कुछ नहीं, बल्कि बरस पड़ना था। फिर भी मैं कुछ नहीं बोली लेकिन उसने बोलना जारी रखा।
"अम्मा तुम
नहीं जानती ‘मेट्रो सिटी के तामझाम। यहाँ की
संस्कृति बड़ी निराली और नीरस है।“
“तो क्या
हुआ! हम क्या जानवर बन जाएँ?“ अपना
गुस्सा पीते हुए धीरे से बोला तो मुझे मेरी कान की लवें गर्म होती सी लगीं।
"अम्मा! यहाँ हर एक भिखारी के लिए अलग-अलग चौराहा एलॉटेड है। और बाक़ायदा इनको संचालित करने के लिए ठेकेदार होते हैं। उनका ये बहुत बड़ा कारोबार है। तुम किस-किस को दे सकोगी? मैंने तो इसलिए कहा।"
"क्या मतलब?"
"मतलब
भिखारी दिनभर अपने प्राण होमकर जितना कमाता है, रात
ठेकेदारों को सौंप देता हैं। जिस लड़की के लिए तुम उदास हो, क्या पता उसकी गोद वाला बच्चा भी उसका न हो।" बेटे ने शांत मन से कहा।
"तुम क्या
कहते जा रहे हो केतन! मुझे समझ नहीं आता।" मैंने
नारज़गी व्यक्त की।
"ये आपकी मर्जी...। मैं समझ रहा हूँ कि बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ।" अबकी उसने ये बात बिल्कुल सपाट चेहरे से कही थी। उसकी मुख मुद्रा देखकर मेरी छाती पर भारी बोझ सा आ गिरा।
“कैसा है ये
महानगर? यहाँ लड़कियाँ तो सुरक्षित नहीं, बूढ़े लोग नौकरों के हाथों लुटकर अपनी जान दे बैठते हैं। बचे
भिखारी, वे भी भीख जैसा कर्म औरों के लिए करते
हैं? इससे तो अच्छा होता ये लोग ज्यादा के
फेर में न पड़कर अपने छोटे गाँव,कस्बे को छोड़ कर यहाँ आते ही नहीं। कम से कम वहाँ रहकर जो जितना रूखा-सूखा कमाता, पूरे स्वामी भाव से अपनी पूँजी समझकर बरतता तो।“
विचारों के
बवंडर ने मन की भीतरी परतों को बुरी तरह छील डाला था। अब तक हमारे बीच हँसी-खुशी
की सारी बातें गायब हो चुकी थीं। जरूरत भर हम एक दूसरे से बोल रहे थे। थोड़ी ही
देर में हम अपने गंतव्य पर पहुँचे तो बेटे ने कहा, "आप गाड़ी में बैठोगी या...?"
बिना बोले ही मैंने गाड़ी में बैठे रहने का इशारा किया तो उसने गाड़ी के शीशे डाउन किए और ‘प्रिसक्रिप्शन’ लेकर चला गया। मन के बढ़े हुए तापमान में पार्किंग में लगी गाड़ी के भीतर बैठना भी मेरे लिए एक कठिन काम लगने लगा था। दिमाग़ बोरियत ओढ़ता उसके पहले मेरी नज़र टाइमपास जैसा कुछ ढूँढने लगी। देखा सड़क की दाहिनी ओर एक कतार में मेगामार्ट रोशनी से सराबोर अपने आँचल में हजारों ख्वाहिशें पूरी करने की दमखम समेटे मचल रहा है। चौराहे पर 'रेड लाइट' से ये वाला दृश्य बिल्कुल अलग था। यहाँ बड़ी-बड़ी रोशनी की दमकती हुई झालरों में गाड़ियों से उतरने वाले खिले-खिले चेहरे न मेरी तरह छाले के दर्द में थे और न ही उस लालबत्ती वाली लड़की की तरह बेचारे।
'तेरस' धन की हो तो धनवान ही न उसका सुख भोगेगा।“ मेरे आत्मबोध ने मुझ पर एक तंज कसा।
कुछ मिनट
चुप रहकर मैंने अपनी गर्दन बाईं ओर घुमाकर देखा। इस ओर फुटपाथ पर अँधेरा पसरा था।
मानो किसी आलीशान कोठी के सामने फूँस की जर्जर झोपड़ी सिर झुकाये उजाले के बीच अपने
हिस्से का अँधेरा लीप रही थी। “इसी
विपर्यता को सम पर लाने के लिए आदमी दिन-रात दौड़ता है। फ़िर भी स्थायी उजाले नहीं
जुटा पाता।“ मैंने अकेलेपन का उपयोग करते हुए ज़ोर से
बोला और ऊपर की ओर देखने लगी। पेड़ निर्विकार भाव में लीन थे। “ऐसे तटस्थ मन हम मनुष्य को क्यों नहीं मिलते?" चूँकि प्रश्न शून्य से किया था तो उत्तर मिलने की सम्भावना भी नहीं थी
खैर, मैंने इधर-उधर देखा तो फुटपाथ पर एक क़तार में चार रेहड़ियाँ खड़ी दिखीं। जिन्हें साँकल से एक साथ बाँधा गया था। “एकता के इस रूप का मतलब रेहड़ियों का सुरक्षित बचे रहना था।” विचारते हुए दीये भर खुशी मेरे होठों के भीतरी हिस्से पर तिर गयी। लगभग दो मिनट बाद मैंने अपने बालों को सम्हालते हुए कार के शीशे से उसी फुटपाथ के दूसरे कोने पर झाँका तो दृश्य बिल्कुल भिन्न दिखा। एक जोड़ा मार्ट से आने वाली धुँधली रोशनी में सुनहरी पन्नी से अपनी रेहड़ी सजाने की जुगत में लगा था। “बिकने के लिए चमकना कितना जरूरी है!” ध्यान आया।
रेहड़ी पर लंबे सरिये पर, जो ऊपर से झुका था...दूधिया रोशनी छोड़ने वाली एल.ई.डी. जला दी गयी थी। कचरे की बाल्टी में बची-खुची कतरन डालकर किनारे रख दी गयी। कागज की प्लेटें,पानी का कैम्पर, काठ की चम्मचें सही जगह पर रख दी गयी थीं। दो प्लास्टिक की चेयर रेहड़ी से हट कर डाल दी गईं। थोड़ी दूरी पर रखी बाल्टी से स्त्री ने पानी लेकर अपने हाथ मुँह धोये और छोटे से शीशे में खुद को देख, रेहड़ी के पास आकर भट्ठी के दो बार पाँव छुए। उसकी माँग में मुट्ठी भर सिंदूर भरा दिख रहा था। साथ वाला उसका आदमी ही होगा, मैंने सोच लिया था। वह औरत को देखकर मंद-मंद मूंछों में मुस्कराया। आदमी के सिर पर जमी धूल की परत रोशनी में दूर से दिख रही थी। स्त्री ने उसे अपनी ओर झुका कर साड़ी के पल्ले से उसका सिर साफ कर पल्ले को कमर में कस लिया।
उसके आदमी ने मद्धिम जलती अँगीठी पर बड़ा-सा चीकट काला तवा चढ़ा दिया। यानी वह अब उसे ग्राहक चाहिए थे जो उसकी दुकान को बरकत प्रदान कर सकें। थोड़ी देर में आँखों में उजाले लिए रेहड़ी वाली स्त्री लंबी-सी कलछुल से तवे पर टुनटुन करने लगी। जैसे कोई माँ अपने बच्चे का मन बहला रही हो। उसका पति क़ागज की प्लेट सम्हालकर रख रहा था मतलब अब वे दोनों बिक्री के लिए तैयार हो चुके थे। उनके बच्चों की आशाएँ उनकी आँखों से झरती हुईं लग रही थीं। त्योहार वाली रात अपनी अविचल यात्रा पर थी। देखते-देखते लगभग आधा घंटा बीतने जा रहा था। ग्राहक मेगामार्ट की रोशनी में समाते जा रहे थे। भूलकर भी कोई इस ओर नहीं देख रहा था। अब तो मैं भी चाहने लगी थी, कोई तो खरीदार उसकी दुकान का शुभारम्भ करे लेकिन मेरे क्या किसी के भी चाहने से कुछ होता है क्या?
मैंने देखा, रेहड़ी वालों का उत्साह धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगा था। जैसे बेजोड़ फूले गुब्बारे से अपनी गति से हवा रिसती जा रही हो। रेहड़ी वाली सारे हथकंडे अपनाकर थकती जा रही थी लेकिन कोई ग्राहक उधर फटकने का नाम नहीं ले रहा था। सड़क पर चहल-पहल देखकर रेहड़ी वाली औरत अपने आदमी के कंधे के पास मुँह ले जाकर बुदबुदाई लेकिन वह प्याज कतरने में व्यस्त बना रहा, कुछ नहीं बोला। वह तुनक कर खड़ी हो गयी। अब उसकी आँखों से मायूसी झरने लगी थी और मेरा मन कचोटने लगा था। उन दोनों की लाचारी देखते-देखते, मुझे अपने बचपन के मुफ़लिस दिन अनायास याद आने लगे। मैं उनकी गमगीनी में भीगती चली गयी।
"गरीबी के बुखार की दवा आख़िर कब बन सकेगी?" बुदबुदाते हुए बरबस ही मेरा हाथ अपने माथे पर चला गया। मन के साथ-साथ मेरा माथा भी गरम हो चला था। मैंने सीट का सहारा लेते हुए आँखें मूंद लीं और मुझे पता भी न चला कि अतीत के पन्ने फड़फड़ा कर पलटते चले गये।
“माँ! सुन
रही हो न?”
“हाँ सुगंध, बोलो!”
“इस बार दीवाली को मुझे भी नई ड्रेस चाहिए।" मैंने मचल कर कहा।
"ये क्या
कह दिया तुमने? तुम तो मेरा सबसे समझदार बच्चा हो।”
“अब से नहीं रहूँगी। तुम मेरी सिधाई का गलत उपयोग करने लगी हो माँ!” मैंने तुनक कर कहा।
“ना सुगंध!
ऐसे नहीं कहते। दिदिया के पुराने कुर्ते से मैंने तेरे लिए एक बहुत अच्छी कुर्ती सिली है। पहन कर देखना, उसके आगे तुम्हारी सहेलियों की नई-नई महँगी वाली फ्रॉकें भी फेल हो जाएँगी।"
"झूठ, एकदम झूठ। पुराने कपड़े से सिली कुर्ती सुंदर कैसे लग सकती है? मैं कुछ नहीं जानती, इस बार मुझे नए कपड़े चाहिए। दिदिया के लिए आपने पीली साड़ी मँगवाई है। मुझे भी पीला कुरता चाहिए।“
"उससे होड़-हिर्स मत करो सुगंध। इस घर में कुछ दिन की ही तो मेहमान है कुसुम। अच्छे से घर-वर मिल जाये, बस उसी की प्रतीक्षा है। क्या तेरी दिदिया की पैरहन अभी से न जोड़ें?" माँ ने अपने को जब्त करते हुए कहा तो उनके माथे पर कई-कई बल पड़ते हुए मुझे दिखे।
"पट्टी
पढ़ाने में एक नम्बर हो माँ। ठीक है ठीक है। मुझे खाना दो।"
"तुझे अकेले
क्या...? सब को बुलाओ न।"
“आ जाओ सब
लोग खाना तैयार है।" सभी एक साथ जुट आये, दिदिया भी।
"माँ आज हम
शक़्कर से रोटी खाएँगे।" भाई ने
कहा।
"भाई खायेगा
तो मैं भी खाऊँगी।"
मैंने भी कह दिया।
"क्यों? गुड़ और सब्जी काटती है, तुम सबको जो सारा दिन शक्कर-शक्कर की रट लगाए रहते हो।" माँ खिसियाकर बोली।
"शक़्कर की
वकालत पर माँ को इसबार सरकार इनाम देगी, दिदिया।"
मैंने माँ पर तंज कसा तो भाई हा हा हा कर हँस पड़ा, दिदिया नहीं हँसी। भाई ने अपनी बात फिर से कह दी। "सुगंध दे दो नss…।” माँ बोली। फिर क्या शक़्कर की कत्थई बोतल दौड़ती हुई हमारे बीच आ गयी और भाई के साथ-साथ हम दोनों में चुटकी-चुटकी भर शक्कर माँ ने बाँट दी।
"तुम भी
खाकर देखो न दिदिया बहुत मीठी है। और माँ तुम भी... बहुत अच्छी लगती है शक़्कर से
रोटी। साथ में घी लगा लो तो कहने ही क्या!" मैंने रोटी
का टुकड़ा चुभलाते हुए कहा।
"हाँ हाँ!
पता है। जाओ जाकर रख आओ
"तुझे मेरी कसम माँ एक चुटकी शक्कर खाकर तुम भी देखो न!"
"ना बिटिया! मँहगाई देखी है?" माँ होंठों में बुदबुदाई। फिर खाली बर्तन-सी बोली,"नहीं रे! तेरी दिदिया को ब्याहना है अबकी साल, शक्कर खाएँगे तो कैसे काम चलेगा?" माँ ने जब कहा तो सांवले रंग-रूप की माँ के गालों की निकली नुकीली हड्डियाँ उन्हें दयनीय बनाती हुई दिखीं। अपने ब्याह की बात और माँ का चिंतित स्वर सुन दिदिया उठ गई लेकिन मैंने माँ से पूछा।
"माँ, तुम इतना अपने मन को क्यों मारती हो? अपने आप को कभी शीशे में देखो कैसी लगने लगी हो? राधा की अम्मा कितनी सुन्दर लगती हैं जबकि वे तुमसे बड़ी हैं?”
“मरने के
लिए करती हूँ चिंता। जा भाग यहाँ से
"माँ! रुको ना माँss मैं लाती हूँ शक्करss।" कहकर मैं
उल्टे पाँव कमरे की ओर दौड़ गयी।
“मेरी बात
तो सुनो, सुगंध, सुगंध….!”
उधर माँ मुझे पुकार रही थी इधर मैं माँ को को और बगल वाली गाड़ी पीं पीं पीं हार्न बजाए जा रही थी। मिले जुले शोरगुल से मेरे हाथ से अतीत की लड़ी छूटी तो देखा मैंने अपना गाड़ी का गेट खोल रखा था, जिससे बगल से निकलने वाली गाड़ी को दिक्कत हो रही थी। मैंने जल्दी से गेट बंद किया और जैसे आँखें बाहर की ओर उठीं तो सीधे रेहड़ी पर फिर से जा गिरीं।
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चित्र : अनुप्रिया |
वहाँ अब भी
खामोशी का आलम था किन्तु दोनों के हाव-भाव में अब मुर्दे जैसी शिथिलता आ गई थी। उनकी आँखों में पड़ती दूधिया रोशनी अब मटमैली हो चली थी। उनके लटके निचुड़े चेहरे देखकर सोचा आस-पास निकलने
वालों से चिल्ला-चिल्लाकर कहूँ,”मेरे मुँह
में छाले हैं पर तुम लोग तो इन से कुछ ख़रीदकर खा लो। इनका भी त्यौहार रोशन हो जाए।” लेकिन मन का सोचा और मूक चीखें भला कब किसने सुनी है।
खैर,करूँ तो क्या करूँ? भीख देकर मैं उनके स्वाभिमान को गिराना नहीं चाहती थी। न ही दान देकर उनकी कार्मिक उमंग को क्षति पहुँचाना चाहती थी। किसी के मन की उथल-पुथल यदि किसी के द्वारा देख-सुन ली जाती तो दुनिया का रंग ही कुछ और होता। मैंने अपना पर्स सम्हाला और गाड़ी का दरवाज़ा खोलकर रेहड़ी वाली की ओर चल पड़ी। पास में जाकर देखा तो दृश्य और भी झकझोरने वाला था।
"क्या बना
रहे हो आप लोग?"
मैंने उत्साहित होकर पूछा।
“चिकन
टिक्का। खाइए न! बहुत स्वाद है। एक बार खाओगी तो बार-बार आओगी मेम साब! मेरा दावा
है।" रेहड़ी वाले आदमी ने बड़े विज्ञापनी लहज़े
में कहा।
"मेम साब !
बनाएँ क्या एक प्लेट...?"
"अरे हाँ
हाँ।" उससे बोलकर मैं सोच में पड़ गयी। मैं तो
शुद्ध शाकाहारी हूँ। अब क्या करूँ?" छाती के
अंदरूनी भाग में मुझे जलन का एहसास हुआ।
"…….." अभी मुँह
से शब्द नहीं निकल सके थे कि दूर एक आवारा कुत्ता मेरी ओर आते हुए दिखा तो धुँधले
पड़ते जा रहे मेरे विचारों में एक ताज़ा विचार कौंध गया। फिर ये भी लगा कि मनुष्यों
के खाने वाली चीज़ को मैं भला कुत्ते को... लेकिन दूसरे पल ’जो हो सो हो’ विचार ने
जादू-सा किया और मेरे मुख से निकल पड़ा।
"अरे! मैं
चिकन नहीं खाती तो क्या हुआ? ये तो जरूर
खाता होगा। आप दो प्लेट बिना मसाले वाला चिकन टिक्का बनाइए।"
"क्या मैडम
…?"
"कुछ नहीं, आप बिना मसाले की दो प्लेट बना दो।"
मेरा ऑर्डर
सुनने के बाद भी वह मुझे हैरानी से देख रहा था। लेकिन उसकी जनानी ने अपने चेहरे पर
आये पसीने को ब्लाउज की आस्तीन से पोंछा और टिक्का बनाने में जुट गयी। मेरे
बार-बार पुचकारने से कुत्ता भी उधर ही रुक कर रेहड़ी सूँघने लगा। मुश्किल से पाँच
से दस मिनट बाद उसने कहा। "लीजिये बन
गया मेम साब।"
और दोनों हाथों में कागज़ की
प्लेटें लिए मेरे सामने खड़ा हो गया।
"कितना दाम
हुआ?"
"दो सौ
रुपये।"
"बिना मसाले के भी दो सौ रुपये?"
"आप कहें तो मसला डाल देता हूँ...।""न न रहने
दो।"
"आप बुरा न
मानें तो मैंने इसके लिए ही बनवाया है।“ संकोच से
कुत्ते की ओर इशारा करते हुए मैंने कहा।
"हाँ हाँ
क्यों नहीं। वैसे भी मुझे तो बेचने से मतलब, खरीदने
वाला खुद खाए या…।“
कहते हुए उसने दोनों प्लेट कुत्ते के सामने परोस दीं और हाथ पेंट से पोंछकर अपनी बीवी की ओर देखने लगा। कुत्ता अपने प्राप्य को प्रेम से सूंघकर खाने लगा। दो मिनट रुककर मैंने दो सौ रुपए निकालकर उसे पकड़ा दिए साथ में पचास के दो कड़क नोट,”इससे मिटटी के दीए ले लेना” देते हुए कहा। दोनों के चेहरों की मुरझाई खाल छुईमुई की तरह खिलने-सी लगी। छोटी आस पूरने वाली ख़ुशी हमारे बीच मचल उठी। मुझे लगा मेरे समय के छोटे-से टुकड़े पर उजला संतोष छलक आया। चुपचाप दो मिनट खड़े रहकर मैं गाड़ी की ओर मुड़ गयी। थोड़ा चलकर देखा तो बेटा भी दवाई लेकर आता हुआ दिखा। दूर से उसे देखकर अच्छा लगा। उसके लिए जो नाराजगी थी, मेरे मन से खत्म हो चुकी थी।
“अरे! आप
बाहर क्यों…?” बेटा बहुत कुछ मुझसे पूछना चाहता था़
लेकिन चुप साध कर उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी। त्योहारी मौसम के शोर में रात डूबती
जा रही था। मन के भीतर वाले सन्नाटे बाहरी रौनक से कब मुखरित हुए हैं सो मेरे भीतर
जो कुछ टूटकर बिखर रहा था, ज़ारी रहा।
कुछ नया रचने का उत्साह मुझ में था नहीं। थोड़ी दूर चलकर गाड़ी दूसरे रास्ते पर मुड़
गयी। मन में आया कि बेटे से उसकी दवा के लिए पूछें? लेकिन हलक
से एक शब्द न फूट सका। मन विचलित हो अपने ठहरने का आलंबन खोज रहा था। शायद कभी कभी कुछ बातें बोले बिना भी सुन ली
जाती हैं। बेटे ने अचनाक मेरी ओर घूमकर बताया कि उसने अपनी दवाई भी ले ली है और मौन हो गया। मैं चाहती थी, वह मुझसे बातें कर उस घटना के बारे में पूछे जो कुछ समय पहले मेरे साथ घटित हुई थी लेकीन बेटे की ओर से जब कोई शाब्दिक हरकत नहीं हुई और मन का सन्नाटा जब सीमा लांघने लगा तो गाड़ी में लगे रेडियो के मैंने कान ऐंठ दिए। अचानक
गाना बज उठा,"इत्ती-सी हँसी..., इत्ती-सी खुशी...! मैंने कनखियों से देखा, केतन के चेहरे पर सहजता पसरने लगी थी।
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बनारस से प्रकाशित पत्रिका में प्रकाशित 2023 |
बहुत अच्छी कहानी
ReplyDeleteबहुत आभार अनीता जी
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