पराधीन कौन
स्वाभाविक आज़ादी का सूत्र माँझा |
जबकि धरती पर स्वतंत्रता एक शाश्वत बोध की तरह चर-अचर में व्याप्त है। फिर भी मनुष्य को उसके लिए तड़पते देखा जा सकता है। क्यों? जब प्राकृतिक रूप से कोई किसी के दवाब में नहीं है तो बैचेनी किस लिए। पृथ्वी पर छोटे से छोटे कण की अपनी सत्ता है, तो फिर ये अमानवीय चीख-पुकार किस लिए? जर्रा भी अपनी अखंडित विराटता में जन्मता और नष्ट होता है। फिर तो प्रकृति की शाश्वत स्वतंत्र अवधारणा में प्रत्येक जीव-जन्तु आज़ाद ही हुआ न? सृष्टिकर्ता ने प्रत्येक जीव को एक आज़ाद त्रिज्या में प्रकटाया है और जीवन जीने का अधिकार दिया दिया है। साथ में एक श्राप कहो या वरदान भी दिया है– जब तक इंसान अपनी स्वाभविक परिधि को नहीं भूलेगा तब तक वह परम स्वतंत्र ही बना रहेगा। इसके इतर सोचकर भी क्या देखूँ और क्यों देखूँ? विचार बार-बार मन में उठता-गिरता रहता है।
लेकिन जब स्वतन्त्रता का अमृत महोत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा हो तो अनायास ही ध्यान उस ओर खिंचा चला जाता है। अन्य जीव जंतुओं को छोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें स्वतंत्रता की इतनी परवाह नहीं जितनी इंसान को है। इंसान जितना अपनी आज़ादी खोने से डरता है, उतना ही दूसरे को बंधक बनाने के लिए उतारू फिरता है। कभी अपनी खुशी तो कभी धनोपार्जन के लिए वह अबोलों के ‘स्व’ को ‘पर’ में बदलने में भी नहीं सकुचाता। तब यही लगता है कि सिर्फ इंसान ही स्वाधीनता और पराधीनता में प्रवृत्त और निवृत्त होने की लालसा पाले दर-दर मारा-मारा फिरता है। मनुष्य समाज की दुहाई दे कर पहले अपने जीवन को मुहाल करता है फिर उसकी दवा खोजता है। समाज आदमी को खोजे या आदमी समाज को, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आदमी पहले स्वयं ऊहापोह निर्मित करता है फिर हाहाकार मचाकर तमाशा भी जुटाता है। क्या ये उचित है? माना कि बाहरी तौर पर हम बहुत विकसित हो चुके हैं लेकिन हमारी आतंरिक चेतना कब संपन्न होगी? बहुत बड़ा चिंता का विषय इस बात के प्रति होना चाहिए। लेकिन आदमी स्वतन्त्रता और स्वछंदता के अंतर को ही नकार देता है। उसकी धड़कन प्रतिपल अपना ही राग अलापती है। आज सिर्फ आमीर ही नहीं अपितु गरीब भी आज़ाद चाहत की हरारत लिए अनचिन्हा सा डोलता मिल ही जाता है।
विकास की अंधी आंधी में वक्त हो या इंसान अपनी निजपरिधि को त्याग चुका है। वह पूर्ण स्वतंत्रता की चाहत में स्वाभाविक मर्यादा का उल्लंघन कर रहा है। हर ओर निजपरिधि तोड़ने के सबूत फैले पड़े हैं। वस्तु हो या जीव जब बित्ते के बाहर स्वयं को पसार देता है तो वह नाश की ओर स्वयं बढ़ जाता है। सीमा रेखा की टोक जैसे ही हटती है, घुसपैठी का घुस आना निश्चित हो जाता है। इसलिए जितना समय और पैसे का निवेश सतर्कता से करने के लिए हमारे हितचिंतक हमारा ध्यान खींचते हैं, उतना ही स्वाभिमानी परिधि की हमें चिंता होनी चाहिए। परिधि की महिमा को यदि और गहराई से समझना हो तो किसी खगोल शास्त्री से पूछिए– सौर्यमंडल में जितने भी ग्रह-नक्षत्र हैं, सबकी अपनी-अपनी कक्षाएँ हैं। जबकि उनके पास तो निस्सीम गगन है, वे स्वयं को खुला क्यों नहीं छोड़ते। लेकिन नहीं, दुनिया के रचयिता ने सबकी व्यवस्था अलग-अलग परिधि में की है।
खैर, मेरी दृष्टि में स्वतंत्रता छीनने वाले से अधिक दोषी परतन्त्रता को जन्म देने वाला है। इस संसार में किसी की भी स्वतंत्रता वाष्पीकृत होकर नहीं उड़ती बल्कि ये अन्य क्रियान्वयन की तरह धीरे-धीरे क्रिएट होती है। इसको क्रिएट करने वाला एक ही तत्त्व मुझे दिखता है, वह है लालच। जब-जब लालच और भय सिर उठाता है तब-तब वह जीव की समूची स्वतन्त्रता लील जाता है। अब जंगल पर राज करने वाले शेर को ही देख लीजिए। शेर की स्वतंत्रता तब तक बाधित नहीं होती है; जब तक उसके मन में किसी के द्वारा फेंकी हुई मांस की बोटी का लालच उत्पन्न नहीं होता। अन्यथा उसकी परिधि में कोई झांक कर तो दिखाए! जैसे ही शेर के मन में लोभ पैदा हुआ नहीं कि सीधे वह जंगल के शेर से पिंजरे की बिल्ली बन जाता है। फिर सर्कस देखने वाले भले उसकी दीनता पर खेद व्यक्त करते रहें। यहाँ ये कहना गलत न होगा कि स्वतंत्रता और परतंत्रता के द्वंद्व में ‘लालच’ ही मुख्य भूमिका में जुगाली करता हुआ दिखता है। जिसने लालच को जीत लिया वह सदैव स्वतंत्र है।
भारत आज परिवर्तन की रेलमपेल के उबाऊ दौर से उबर कर विकास की चौड़ी सड़क पर दौड़ रहा है। मनुष्य सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक आदि आदि स्तरों पर सुसंस्कृत हो चुका है। विकसित होकर अब वह ऐसे समाज की संरचना में व्यस्त हैं जिसमें किसी भी प्रकार की विषमताओं की कोई गुंजाइश नहीं बचेगी। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ भी अप्राप्य नहीं रहेगा। यह एक महान क्रांतिकारी तकनीकी दौर है। आज का मनुष्य सहजता और सजलता को मूर्ख समझता है। चापलूसी, धोखाधड़ी, क्रूरता को ‘ग्रूम्ड’ घटक के रूप में गिन रहा है। आप जितने बड़े धोखेबाज, लफ्फाज़, और दिल फ़ेंक होगें आपकी तरक्की के रास्ते उतनी ही तेज़ी से धड़ाधड़ खुलते चले जाएँगे। अब खरे और सच्चे व्यक्ति के लिए हर दिन युद्ध जीतने जैसी चुनौती है। स्वतंत्रता को मैटेलिक ट्रीटमेंट देने का चलन ज़ोरों पर है। विकासशील मनुष्य सब कुछ पा चुका है, बस उसे स्वतंत्रता चाहिए। उसी की छीना-झपटी में वह आपदमस्तक डूबा है। जिसके हिस्से में जितनी स्वतंत्रता आ जाती है– वह उसके परखच्चे उड़ा कर ही दम भरता है और जो अपने को परतंत्रता में जकड़ा महसूस करता है, वह भूखे श्वान की भाँति स्वतंत्रता की ओर जीभ लटकाए ताक रहा होता है।
स्वतंत्रता को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर अलग प्रकार की खलबली मची दिखाई पड़ती है। कोई आज़ाद ख़यालों में आकाशीय भ्रमण पर है, तो कोई लिवि-इन की पैरवी कर रहा है। कोई कोख़ किराए पर इसलिए ले रहा है ताकि उसकी पत्नी का शरीर सुकुमार्य लिए रहे, कोई समलैंगिकता को सही ठहरा रहा है तो कहीं एक ससुर अपनी पुत्रवधू से इसलिए विवाह रचा लेता है ताकि वह अपने पुत्र को सबक सिखा सके। कुल मिलाकर अगर एक सामान्य व्यक्ति स्वतन्त्रता को समझना चाहे तो उसके लिए अति भ्रामक स्थित है।
वैसे देखा जाए
तो संसार में सबसे ज्यादा आज़ाद खयाल समुद्र को माना जाता है लेकिन क्या सच में
समुद्र आज़ाद है? या फिर सबसे ज्यादा वही अनुशासित और मर्यादित जीवन
जीता है। हाँ, कभी-कभी उसे भी मनुष्य की भाँती आज़ाद होने की
सनक चढ़ती है, तो वह प्रयोग के तौर पर एक छोटी-सी आज़ाद
हिचकी लेकर देखता है। उतने से ही पृथ्वी की सुंदरता नष्ट कर शहर के शहर तहस-नहस कर
देता है। जब तक मतवाले सागर की हिचकी थमती है, तब तक पृथ्वी
की कुरूपता सघन हो असहनीय बन चुकी होती है और इस तरह अपने आज़ाद जश्न के बाद सागर
भी सिसक-सिसक पड़ता है। तो मनुष्य की विसात ही क्या? अपने
उदर के आज़ाद तांडव को शांत कर पुनः वह अनुशासित हो झूमने लगता है। अब धरती और
सागर में कौन आज़ाद है, और कौन बंधक? शायद
ही दोनों में से कोई अलग से बता सके। वह तो हम मनुष्य हैं जो आए दिन स्वतन्त्रता
के नाम पर फतवा जारी किए बैठे रहते हैं। आख़िर जो चीज़ आंतरिक है, उसे बाहर खोजा भी कैसे जा सकता है। ऐसी स्थिति में पतंग यदि कहे कि माँझा
उसे परतंत्र बना रहा है तो समझिये उसका कटकर गिर जाना निश्चित है। पतंग और लट्ठे
के बीच लगा माँझा रूपी डोर स्वाभाविक आज़ादी का सूत्र है। जब तक पतंगबाज के हाथ में
माँझा बना रहेगा पतंग ऊँची-ऊँची होकर लहराती रहेगी। अस्तु!
***
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०६-०८ -२०२२ ) को 'उफन रहीं सागर की लहरें, उमड़ रहीं सरितायें'(चर्चा अंक -४५१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०६-०८ -२०२२ ) को 'उफन रहीं सागर की लहरें, उमड़ रहीं सरितायें'(चर्चा अंक -४५१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०६-०८ -२०२२ ) को 'उफन रहीं सागर की लहरें, उमड़ रहीं सरितायें'(चर्चा अंक -४५१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका आलेख बहुत सी जानकारियों और ज्ञान का समुचच्चय है. साधुवाद!
ReplyDeleteकृपया मेरी कहानी मेरी आवाज़ में इस लिंक पर जाकर अवश्य सुनें :
https://youtu.be/igH7WVr3w5g
ब्रजेन्द्र नाथ