कुण्डलिया छन्द
दीपक ,घी-बाती बनी,प्रतिपल बदला रूप।
छाया में लिखती रही, नारी अपनी धूप।।
नारी अपनी धूप , किया रातों को उजला।
चुनती गई कुरूप ,नहीं पथ अपना बदला।।
कंकड़-मिट्टी धूल ,बनी वह सबकी रूपक।
कुटिया हो या महल, सजाया बनकर दीपक ।।
Comments
Post a Comment