अस्तित्व की यात्रा


पुराने बरगद की खोह में बैठा बूढ़ा चमगादड़ , अपने बच्चों को लोरियों की जगह आपबीती और अनुभव की बातें सुना ही रहा था कि अचानक पेड़ के ऊपर से गुर्राता हुआ एक जहाज निकला ।
“देखो ...देखो, खुश इंसान उड़ता जा रहा है । इसने अपनी मुट्ठी में दुनिया को बाँधने का सपना देखा और सच भी रहा है ,और हमारे रंग-रूपों में भी अंतर होता जा रहा है | जानते हो क्यों ? बूढ़े चमगादड़ ने एक छोटे बच्चे को पुचकारते हुए कहा ।
"कहीं से आवाज आई "क्यों दादू ?"
"क्योंकि सभ्यता हमारे तन-मन को लगातार परमार्जित करती जा रही है | लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम पथभ्रष्ट हो जायें और फल-फूल, कीट-पतंगो की जगह इंसानों को खाने लगें | पेड़ की खोह में हँसी गूँज उठी।
”लोरियों की मधुर स्निग्धता में खोई हुई खोह के एक कोने से फुफकारने जैसी आव़ाज आने लगी जैसे कोई अतिक्रोध में भरकर नाक से गरम हवा फेंक रहा हो |
“कौन है उधर ? जिसका ठंडा मन, क्रोध की आग में जल उठा है |”बूढ़े चमगादड़ ने नजरें इधर-उधर उठाकर देखा तो अपनी अगली पीढ़ी का एक बच्चा मुट्ठियों को भींचे, दाँत पीस रहा था, देखा | “क्या हुआ मेरे प्यारे ? तुम, ऐसे तो कभी नहीं थे |”
“दद्दू ! मत पूछो ? मुझे आपकी बातों से घुटन होने लगी है | तंग आ गया हूँ आपकी उदारता और सहनशीलता को देखते-देखते | आज मुझे आधा-अधूरा नहीं पूरा सच सुनना है और जब संसार में सभी का कुनबा दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है तो हम ही क्यों सिमटे जा रहे हैं ?”
बच्चे की ललकार भरी कातर आव़ाज सुन, बूढ़ा चमगादड़ अपने मन के घावों को छिपा न सका और जंगल से सटे शहर में हो रहे, अपनी प्रजाति पर अत्याचारों की एक-एक व्यथा सुना डाली |
सुनते ही उसकी हड्डियाँ चटकने लगीं | आँखों से आक्रोश का झरना फूट पड़ा और उसी में, उसके कुनबे के मरे हुए छोटे-बड़े चमगादड़ों की छवियों और आर्तनाद से पूरी खोह गूँज उठी | अनर्थ के भय से थर्राए बूढ़े ने उसे रोकना चाहा, लेकिन उसने, बदले की भावना से भरे अपने मजबूत पंख फड़फड़ाये और शहर की ओर उड़ चला | धरती पर पड़ती उसकी काली परछाईं से आधी धरती काँप उठी थी ।

-कल्पना मनोरमा
25.4.20

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