भयाक्रांत रात


रात अपने पूरे मिज़ाज में थी ।चारों ओर आम,नीम,और यूकेलिप्टस के वृक्ष भीमकाय भयानक -डरावनी बुत जैसे लग रहे थे ।सामने वाला 'फ्लाईओवर' जिसे चैन की साँस लेने की फ़ुर्सत नहीं थी, लेकिन आज आराम से पैर फैला कर सो रहा था ।
चारों ओर बजता सन्नाटा मेरे मन को भयभीत कर रहा था । बिस्तर पर लेटे-लेटे पीठ अकड़ने सी लगी तो चुपके से बालकनी का दरवाज़ा खोल वहाँ पड़ी कुर्सी पर जा बैठी।
आसमान सितारों से हमेशा की तरह भरा था । चाँद अपनी चाँदनी को किस्से सुना रहा था ।चारों ओर की बिल्डिंगों की बालकनियों में बँधे तारों पर लटकते कपड़े हिल-हिल कर उन घरों के सहमें लोगों का पता दे रहे थे ।"कितना अकेला और निराश हो गया है महानगर ।" मैंने कल्पना में भी ऐसा नहीं सोचा था । सोचते हुए आँखें मूँद लीं ।
हवा की सरसराहट देह में झुरझुरी भर रही थी । मन लगाने की तमाम कोशिशें ध्वस्त हो चुकी थी। हारकर मैंने दिमाग को आदेश दिया । "भई कोई तो अच्छा विचार ले आओ, जिसमें ये परेशान रात कटे ।" दिमाग़ ने स्मृतियों को आदेश दिया तो पल भर में खुल गईं यादों की पोटलियां ।
यादों की सघन जद्दोजहद को कॉलोनी के आवारा कुत्तों ने भौंक -भौंक कर तोड़ दिया ।
कलाई पर बंधी घड़ी देखी तो रात का तीसरा पहर चल रहा था ।डर की एक गाढ़ी नुकीली लकीर सी पेट में उठी।
बचपन में आजी को कहते सुना था कि कुत्तों को जब मृतात्माएँ साक्षात दिखती हैं तभी वे भौंकते हैं ।
"अब क्या होगा ? ये महामारी कितने शहरों को निगल जाएगी ? क्या सच में ये चीन की बुरी चाल है ।क्या उसने जैविक हथियार सच में तैयार कर लिए हैं ?क्या आदमी के पाप का घड़ा भर चुका है ?क्या ये तबाही युद्ध की ओर इशारा कर रही है?"
प्रश्नों की गुंजलक को बेटे की आवाज ने तोड़ा । "माँ एक कप कॉफ़ी बना दोगी?" " हाँ हाँ , क्या सुबह हो गई......?।"
-कल्पना मनोरमा
30/03/20

Comments

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

आत्मकथ्य

बोले रे पपिहरा...