भूली-सी पीर
“सब्जी की दुकान है या चौराहा? कमला झोला लेकर ज़रा मेरे आगे-आगे तो चलना।” मैंने अपनी गृह सहायिका को बोला ही था कि एक सज्जन ने घूरते हुए कहा,“मैडम सुना नहीं आपने,अपना काम अब खुद करने की आदत डाल लीजिए।”
“क्यों भई ?” मैंने उनसे पूछा।
“कोरोना जी का आदेश है की अपना काम स्वयं करो,नहीं तो मरो।” कहते हुए सज्जन ने ठठा कर हँस दिया। बेवक्त की हँसी ने मेरे मन को झुंझलाहट से भर दिया था।
“वैसे आपको बता दूँ कमला मेरे परिवार की सदस्य है।” सज्जन की ओर घूरते हुए कहा।
“कमली तू बता न! घर में कौन-सी सब्ज़ी की जरूरत है ? लोगों को आदत होती हैटांग...।”
मैंने बुदबुदाकर मन को शांत किया।
”आप ही देख लो जिज्जी जो आप को अच्छा लगे उसी की जरूरत बन जाएगी।” कमला स्लेटी मसूड़े दिखाते हुए हँस दी।
“अच्छा, तू मेरा मजाक बना रही है?”
“राम राम जिज्जी आपकी मजाक,मेरी जुबान ही कट जाए।”
“अच्छा ठीक है, बातें मत बना, झोला ठीक से पकड़।”
“सब्ज़ी खरीदने का काम तुझे ही मुबारक हो कमली।”
“जिज्जी आप बाहर चली जाओ, मैं ख़रीद लेती हूँ।” कमला को शायद मेरे ऊपर तरस आ रहा था।
“कोई बात नहीं आज तो मैं ही।”
मैंने उससे कह तो दिया लेकिन चारों ओर तरह-तरह की सब्जियाँ-फल और ऊपर से सड़ी-गली सब्जियों का ढेर। थोड़ी देर में मेरा मन उकताने लगा था। टमाटर उठाते हुए मैंने बगल वाली डलिया में झाँका तो चुआ हरे बंदगोभी मेरी ओर ही टकटकी लगाये देखे जा रहे थे।
“मुझे ख़रीदना मत भूलना।आज सुबह से किसी ने मुझे छुआ तक नहीं है।” मैंने झट से एक बड़ा-सा बंदगोभी उठा लिया। अभी मैं उसको घुमा-फिरा कर देख ही रही थी कि बगल में खड़ी बहन जी ने हड़बड़ाते हुए लगभग मेरे ऊपर गिरते-गिरते कहा।
“छोडो इसे। और याद रखना इसको कभी मत लेना।”
“क्यों इसको क्या हुआ है?” मैंने कहा।
“अरे,आपने सुना नहीं व्हाट्सएप पर इसकी बड़ी निंदा हो रही है।”
“बहन जी, वहाँ बंदगोभी की चर्चा नहीं, कोरोना वाइरस की चर्चा और चीन की निंदा हो रही है।” बहन जी भय से काँपते हुए बोलीं।
“अरे! हँसो मत मैडम, इसमें “कोरोनावाइरस” के तत्व पाए गये हैं।”
“......”
“जिज्जी इसे झोले में डाल दो, ऐसे तो आप थक जाओगी।” कमला के बोलने से मेरी तन्द्रा टूटी।
“कमला, थोड़ा धनिया उठा लाओ और बस चलो,अब घर चलते हैं।” गाड़ी में पीछे की सीट पर सब्जी के साथ कमला भी वहीँ बैठने लगी। |
“तू पीछे कब से बैठने लगी? इधर आ।”
“.....”
“कमला क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं जिज्जी।” “रियर ब्यू मिरर” में झाँक कर वह बोली।
“फिर इतनी उदास क्यों है तू?”
“छोडो न ! जिज्जी।”
“कमली जो बात मन को भारी बना दे उसको कह देने में ही भलाई है।” मैंने कहा।
”जिज्जी एक बात पूछें?”
“हाँ पूछ न! उसमें इजाज़त लेने की क्या बात है।” गाड़ी का स्टेयरिंग घुमाते हुए मैंने कहा।
“आप बुरा न मनो तो कहें जिज्जी!”
“बोल न!”
“आपने बंदगोभी क्यों नहीं खरीदा? आज तो आप “चाऊमीन” बनवाने वाली थीं।”
“अच्छा, तो तुम अभी तक बंदगोभी में ही बंद पड़ी हो?”
“नहीं हँसी की बात नहीं जिज्जी सही बताओ न!”
“कमली तुमने सुना नहीं था एक औरत कह रही थी कि उसमें “कोरोनावाइरस” का असर है।”
“आप भी जिज्जी!” कहते हुए कमला अचानक गहरी उदासी में डूब गई।
“तुझे क्या हुआ ? तू इतनी परेशान क्यों दिख रही है?”
“कुछ नहीं।”
“नहीं, अब तो तुझे बताना ही पड़ेगा।”
“अब देखो न जिज्जी ये लोग भी किसी के सगे नहीं होते। अपने मतलब भर काम निकाल कर लतिया देते हैं।उस पर मोबाइल और वहाट्सएप ने तो सोने पे सुहागा..।”
“कमला तू पहेलियाँ मत बुझा सीधे-सीधे बता, बात क्या है?”
“अभी कुछ समय पहले एक बुखार चला था उसका जिम्मा भी इसी पर आया था।आज इस
बीमारी का…’ बेचारा ग़रीब।”
“कमला जो कहना है वह बात कह तुझे सुकून मिलेगा।” मैंने
गाड़ी सड़क के किनारे लगाते हुए कहा।
“जिज्जी उन मजदूरों का क्या होगा जो पोटली भर गृहस्थी लिए बिना चप्पल जूतों
के अपने घरों की ओर चल पड़े हैं?”
“तूने उनको कहाँ देख लिया रे ?”
“बबिता बेबी मोबाइल में देख रही थी, तभी।”
“मुम्बई से खदेड़े गये बिहारियों में से किसी एक मजदूर की बच्ची कमली थी जो रेलवे स्टेशन पर छुट गयी थी। भाग्य से मैं उस दिन कहीं से लौट रही थी। तब से कमली मेरे साथ है।” मेरे दिमाग में एक सिनेमा की रील-सी घूम गयी।
“तू तो सात वर्ष की थी कमली तुझे याद है सब?” वो कुछ कहती उसके पहले मैंने उसे गले से लगा लिया।
आलू जैसी सर्वव्यापी नहीं है, इसलिए संकट में घिर जाती है बंदगोभी
ReplyDeleteबंद गोभी बदनाम हो गया है ।
ReplyDeleteऔर बंद गोभी का क्या ... अच्छी पोस्ट है ... व्यंग्यात्मक अन्दाज़ ...
ReplyDelete