कुण्डलिया छन्द





मुकुलित मन को चाहिए,उजला घट आकाश

नयन मूँदकर  भी दिखे , अंतर  नव्य प्रकाश

अंतर नव्य   प्रकाश,   अँधेरा  कण-कण टूटे

पूरे मन   की   आस , व्याधियाँ   तन से  छूटे

नूतन हों   उद्गार ,हृदय   हो सबका सुकुलित

जड़ता का हो अंत, नरमता हो उर मुकुलित।।


-कल्पना मनोरमा

  ३.६.२० 






Comments

  1. बहुत ही सुंदर कुंडली ,आपका हार्दिक आभार ,बहुत बहुत धन्यवाद भी ,मेरे ब्लॉग पर आकर कमेंट करने के लिए

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (06 जून 2020) को 'पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप' (चर्चा अंक 3724) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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  3. शुद्ध ह‍िंंदी और कुंडल‍ियां ... वाह क्या खूब ल‍िखा है कल्पना जी ...अंतर नव्य प्रकाश, अँधेरा कण-कण टूटे

    पूरे मन की आस , व्याधियाँ तन से छूटे

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