एक नई शुरुआत
चित्र : गूगल से साभार एक नई शुरुआत वे खुशनुमा मार्च के दिन थे। गुनगुनी बताश में तितलियाँ अठखेलियाँ कर रही थीं। सुनहरे दिनों की आमद , ललिता के घर काम का सैलाब ले आई थी। ऊनी कपड़ों की पोटलियों में नैपथलीन की गोलियाँ डाल कर संदूक में सुरक्षित कर दी गई थीं। गर्मी के कपड़े दुरुस्त किए जा रहे थे। पुरानी साड़ियों की धज्जियों से पांवदान बनाये जा रहे थे। नयी साड़ियों में फ़ोल टाँकी जा रही थी और उनके मैचिंग ब्लाउज सिले जा रहे थे। बची कतरन से हथपंखों में फुंदने लगाए जा रहे थे। बिजली चली जाने पर इन्हीं पंखों का उपयोग ललिता चाव से किया करती थी। इस तरह समझा जा सकता था कि वह भले नौकरी-पेशा स्त्री नहीं थी पर कामों की उसके पास कोई कमी नहीं थी। पति के ऑफिस की पार्टियों में जाना , सैर करना , कहीं घूमने-फिरने के लिए जाना और किसी के पास बैठकर खाली समय में बिताने को वह पाप समझती थी। वहीं उसका पति उसके इस तरह के जीवनयापन पर उसे अन्तर्मुखी , घुन्नू , घर-घुस्सू , अकुशल एवं अव्यवहारिक स्त्री कहता थकता ही नहीं था। ललिता को इस बात का कोई मलाल भी नहीं था। " किसी को कुछ भी मान लेने में दोष उसी दृष्टि का
बहुत ही सुंदर कुंडली ,आपका हार्दिक आभार ,बहुत बहुत धन्यवाद भी ,मेरे ब्लॉग पर आकर कमेंट करने के लिए
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (06 जून 2020) को 'पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप' (चर्चा अंक 3724) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
शुद्ध हिंंदी और कुंडलियां ... वाह क्या खूब लिखा है कल्पना जी ...अंतर नव्य प्रकाश, अँधेरा कण-कण टूटे
ReplyDeleteपूरे मन की आस , व्याधियाँ तन से छूटे
वाह !बेहतरीन 👌
ReplyDeleteशानदार
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