बहस के बीच बहस
प्रिय जिज्जी! बहुत दिन हुए, आपका हाल-चाल नहीं मिला। मन में बस एक उम्मीद बनाए रखती हूँ कि सब ठीक-ठाक होगा। मगर जब से सुना है—तेज़ बुखार में आपकी सुनने की शक्ति जाती रही। मन कच्चा-कच्चा बना रहता है। कान को लेकर बचपन से दुःखी रहीं आप। न अम्मा ने झापड़ मारा होता , न ही बधिरता की शिकार हुई होतीं…। आपके दाहिने कान से हमेशा पानी बहता रहा। जब आप माँ बनी , शरीर कमज़ोर हुआ। फिर तो पस बहने लगा। और अब दोनों कान ख़राब। कितना अच्छा होता , आप सुन सकती। हम चारों बहनें फोन पर मिलजुल बतिया लिया करतीं। पर अपने तो भाग्य ही हेठे हैं…। मेरा पत्र जब आप तक पहुँचेगा तो चौंकेगीं जरूर आप। क्योंकि चिट्ठी लिखने में आलसी लड़की चिट्ठी लिख रही है। लिख इसलिए रही हूँ ताकि आप बार-बार पढ़कर विचार कर सकें। अब इस उम्र तक आते हुए लगता है कि बार-बार किसी बात को क्यों आप पूछती हो। सच कहें—बाल की खाल उधेड़ने वाला रोग अब मुझे भी लग चुका है। जयंती और कुन्नी के साथ अक्सर बहस हो जाती है। जब बात समझ ही नहीं आएगी तो पूछना ही पड़ेग...
बहुत ही सुंदर कुंडली ,आपका हार्दिक आभार ,बहुत बहुत धन्यवाद भी ,मेरे ब्लॉग पर आकर कमेंट करने के लिए
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (06 जून 2020) को 'पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप' (चर्चा अंक 3724) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
शुद्ध हिंंदी और कुंडलियां ... वाह क्या खूब लिखा है कल्पना जी ...अंतर नव्य प्रकाश, अँधेरा कण-कण टूटे
ReplyDeleteपूरे मन की आस , व्याधियाँ तन से छूटे
वाह !बेहतरीन 👌
ReplyDeleteशानदार
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