ध्वनियों के दाग


“संयुक्त परिवार में दोपहर तक काम निपटाते-निपटाते औरतें थककर चूर हो जाती हैं.दिन के उस पहर के बाद उन्हें ये लगने लगता है कि उनके बच्चे भी उनके पास न आएँ. लेकिन वहीं पर वे ये भी चाहती हैं कि उनकी भावी पीढ़ी को प्राथमिक शिक्षा भी मिलती रहे” विनोद ठाकुर के परिवार की बहुओं में सबसे बड़ी नादान की ताई ने अपनी देवरानियों से कहा. बैठक से उठकर पानी पीने आये नादान के दादा जी विनोद ने ठिठककर उनकी सारी बातों को पहले सुना फिर गुना और कुछ सोच समझकर उन्होंने कहा. 

“अच्छा ये बात है बहू, तुम्हें बताना था न! कल से दोपहर के बाद घर के सभी बच्चे लान में बड़े तख़्त पर, मेरे पास ही खेलेंगे.”

अपने ससुर की बात सुनकर पहले तो सभी औरतों ने एक दूसरे की और चौंक कर देखा फिर सिर झुका लिया. लेकिन विनोद को समझने में देर नहीं लगी. उन्होंने कहा कि वे मज़ाक नहीं, सच कह रहे हैं. तो कोई खुलकर हँसा,कोई घूँघट में. 


विनोद ने देखा वहीँ झूले में उनकी पोती झूल रही है. उउन्होंने अपनी छोटी पोती निहारिका को गोद में उठा लिया. नादान वहीं पास में खेल रहा था, वो भी उनके साथ चलने को मचल पड़ा तो उसको भी ले लिया.

पोती को गोद लिए विनोद सीधे पुस्तकालय में बच्चों के लायक पुस्तक खोजने चले गये. इधर-उधर देख ही रहे थे कि सोवियत-संघ की कृषि-पत्रिकाओं के बंडल पर उनका ध्यान चला गया. जिनको वे कभी बड़े शौक से मँगाया करते थे. 

“हाँ, ये अच्छी रहेंगी, इनके द्वारा हम बच्चों को अपने परिवेश और प्रकृति से जोड़ सकते हैं. स्कूलों में तो वैसे भी मशीनी पढ़ाई होने लगी है अब.” 

सोचते हुए विनोद ने कई एक पत्रिकाएँ एक हाथ में उठा लीं और बाहर तख्त पर आ गये. निहारिका को प्राम-गाड़ी में लिटाकर वे नादान को उन्हीं पत्रिकाओं में से एक-एक पत्रिका लौट-पलट कर दिखाने लगे. 

बच्चा जिस पेज़ पर ऊँगली रख देता वे उसी को पूरे मनोयोग से समझाने लगते. टमाटर के पौधों पर लगे लाल-लाल टमाटरों के रंगीन चित्र देखकर नादान बोला,”ये कितना सुन्दर है, य़ार दादू !” विनोद पोते की बात पर मुस्कुरा पड़े.


समय के साथ नादान अपने दादा के संग-साथ से  होशियार होता जा रहा था. वहीं पर वह उनकी नकल भी उतारने लगा था. विनोद के द्वारा कही बातें भी वह रस ले लेकर दोहराने लगा था. जब-जब नादान दादा जी की नकल उतरता, घर के सभी सदस्य उसकी इस शैतानी को ‘नॉलेजेबल’ मानकर मोहित होकर खूब आंनंद लेते.


एक दिन सुबह-सुबह विनोद अपने मित्रों के साथ कहीं लंबी सैर पर निकल रहे थे. घर में हो रही चहल-पहल से नादान भी जाग गया और उनके साथ जाने की जिद करने लगा. विनोद ने अपने प्लान के अनुसार उसको समझाया कि वे बहुत घूमने जा रहे हैं,कल उसको ले जायेंगे.बस फिर क्या था विनोद तो अपनी सैर पर चले गये लेकिन नादान ने घर अपने सर पर उठा लिया. सबने खूब समझाया, डांटा और मनाया लेकिन वह अपने दादा जी पर भयंकर नाराज हो कर बैठ गया. 


दोपहर के भोजन के लिए विनोद ने सब बच्चों के साथ नादान को भी आवाज़ लगाई.कई बार बुलाया. उनको क्या पता कि सुबह उन्होंने नादान के साथ छोटा-मोटा मन-मुटाव पैदा कर लिया था. जैसे ही उन्होंने एक बार उसको और पुकारा,“अबे बेहया साले, मुझे घुमाने नहीं ले जा..!"


कहता हुआ नादान एक कोने में मुँह डालकर खड़ा हो गया.इतना सुनते ही घर में तो जैसे हडकंप मच गया. नादान की माँ दौड़कर डंडा उठा लाई. दादी ने उसके कान खींचने के लिए हाथ बढ़ा दिया. और उसकी बड़ी मम्मी तो बंटे जैसी आँखें निकालकर उस पर झपट ही पड़ीं.

“नहीं..नहीं..नहीं कोई भी उसको कुछ नहीं बोलेगा.”

“कैसी बातें करते हो बाबूजी! इसकी हिम्मत तो देखो जरा. अभी नहीं कुछ कहा गया तो इसके भाव बढ़ जायेंगे.”

बड़ी बहू शर्मिंदा होते हुए बोली.

“डांटना इसलिए नहीं है उसे क्योंकि उसमें उसकी कोई गलती नहीं है. उसे न शब्द का अर्थ पता है और न ही व्यक्ति.

उसने जो शब्द कहे हैं, वे उसके लिए सिर्फ गुस्सा प्रकट करने के साधन मात्र हैं.”

“पर है तो गलत न! इसको अभी से छूट मिली तो आगे बड़े बड़ों के कान काटेगा?” ये नादान की दादी थीं.

“इसमें उसकी कोई गलती नहीं है प्रमिला, मेरी है. अगर डाँटना है तो तुम मुझे डांट सकती हो.”

विनोद ने जब गम्भीर उदास स्वर में कहा तो सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे.जब कोई नहीं बोला तो सन्नाटे को बटोरते हुए विनोद फिर बोले.

“दरअसल कल मैंने इन्हीं शब्दों के द्वारा जो नादान ने मुझसे बोले हैं, एक नौकर को जो नया काम पर आया है बोलकर बहुत डाँटा था. मैं ये बिल्कुल भूल गया था कि नादान मेरे पास ही खेल रहा है.” 

कहते हुए विनोद ने आत्मग्लानि में भरकर अपना सिर झुका लिया.

 

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