कविता मनुष्य की रागात्मक वृत्ति है

दायें से पहले डॉ० विकल जी दूसरे  नवगीतकार  मधुकर अस्थाना जी और उनके साथ बैठे हैं नवगीतकार बीरेंद्र आस्तिक जी 
कविता मनुष्य की रागात्मक वृत्ति है, यह कभी समाप्त नहीं हो सकती


मध्य प्रदेश के सीधी जिले में जन्में और मध्य प्रदेश को ही अपनी कर्मभूमि के रूप में वरण किये हुए गीतकार (म.प्र. साहित्य अकादमी के श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार से पुरस्कृत) डॉ. रामगरीब पाण्डेयविकलविगत लगभग पैंतीस वर्षों से हिन्दी की सेवा कर रहेहैं। कविता की विविध विधाओं में अपनी लेखनी चलाने के साथ ही उन्होंने गद्य साहित्यकी अनेक विधाओं में भी सहजता से लेखनी चलायी है। खुद को प्रचारित - प्रसारित करनेकी लालसा से परे डॉ. विकल मौन साधक की भाँति अनवरत साहित्य साधना में रत हैं। विगतदिनों उनके कानपुर प्रवास के दौरान कानपुर की उदीयमान कवयित्री - नवगीतकार कल्पना मनोरमा ने कविता के विभिन्न सरोकारों पर उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी बातचीतके प्रमुख अंश --
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कल्पना- आज के युग मेंकविता अपनी असली भाव-भंगिमा तलाशती सी नजर आती है। इस पर आपका क्या विचार है?
विकल- आपके इस प्रश्नके सापेक्ष मुझे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन याद आ रहा है, कि जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। सीधा सा अर्थ है कि बिना किसी छल-प्रपंचके हृदय की या मानव मन की सहज वृत्तियों के निर्वाध प्रवाहित होने में ही कविता का सामीप्य पाया जा सकता है। काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों पर दृष्टिपात करने पर काव्य के चार मूल तत्वों- भाव तत्व, बुद्धि तत्व, कल्पना तत्व और शैली तत्व में भी, भाव तत्व को सबसे पहले स्थान दिया गया है। अब इसे विडम्बना ही कहेंगे, कि आज कुछ अति बौद्धिक लोगों ने कविता की दिशा और दशा बदलने का बीड़ा उठा रखा है। जब कविता मेंबुद्धि पक्ष प्रधान हो जाएगा तब उसके मूल स्वरूप में, उसकी भाव-भंगिमा में अन्तर आना या विचलन होना बहुत स्वाभाविक है। यहएक चिन्ता का विषय है, कि तथाकथित बौद्धिकों ने कविता को छन्द, लय, भाव, रस, सबसे मुक्त करने का अभियान छेड़ रखा है। ऐसे में समझ में नहीं आता किजब भाव नहीं होगा, रस नहीं होगा, तो कविता कहाँ होगी? क्योंकि आचार्योंने भीवाक्यं रसात्मकं काव्यंकहकर कविता में रस की अनिवार्यता का प्रतिपादन किया है। कविता को कुछ अति महत्वाकांक्षी, यशकामी लोगों ने भी क्षति पहुँचाई है और पहुँचा रहे हैं। वर्तमान समय में कई कवि, परम्परा से चले आ रहे छन्द विधान को तोड़-मरोड़ कर नया नामकरण करने की आपाधापी दिखा रहे हैं। उनके द्वारा इसप्रयास से जहाँ एक ओर दुख होता है, वहीं दूसरी ओर इन पर दया भी आती है और वह इसलिए कि बेचारे स्वयं सम्पूर्ण छन्दशास्त्र का अध्ययन शायद ही किये हों, किन्तु अपने नाम से नये छन्दोंकी घोषणा कर स्वयं को पिंगलाचार्य सिद्ध करने का हठ पाले हुए हैं। ईश्वर जाने उनके इस श्रम का क्या फल मिलेगा? कविता की भाव-भंगिमा और उसकी मूलधारा को छिन्न-भिन्न करने में आज की आभासी दुनिया में सक्रिय तथाकथित कवियों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पता नहीं क्यों, बाकी और सब काम छोड़कर एक बड़ा वर्ग सिर्फ कवि होना चाह रहा है। शायद उन्हें कवि के रूप में प्रसिद्धि का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा है। एक बहु प्रचलित दोहा है- जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ। जो बौरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ।के अनुसार, कविता भी पूर्ण समर्पण, श्रम एवं गहन अध्ययन की माँग करती है। मेरे विचार से कविकर्म कोई पार्ट टाइम शगल नहीं हो सकता। इसके लिए अनुभूति के स्तर पर, भावों को जीने की अनिवार्यता होती है और भावों को जीने की यह क्रिया, खुद को काँटों पर घसीटने से कम नहीं कही जा सकती आज के काव्य मंचों ने भी कविता को आहत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कविता को काव्य संध्या, विराट कवि सम्मेलन, अखिल भारतीय कवि सम्मेलन से निकाल बाहर कर आज हमने काव्य मंचों को अखिल भारतीय हास्य कवि सम्मेलन का रूप दे दिया है। सोचना पड़ता है कि शेष आठ रस कहाँ आसरा पायेंगे? बुक-स्टाल्स पर मिलने वाली चुटकुले की किताबों के चुटकुले काव्य-मंचों की खिल्ली उड़ाते दिखते हैं। इससे भी अधिक हास्यास्पद और दुखद दृष्य तब होता है, जब कविता के नाम पर सजाये गये इन मंचों पर कव्वाली की तर्ज पर सवाल जवाब होते हैं। इनकी विषय वस्तु और स्तर की चर्चा करना भी कष्टप्रद होता है। खैर! परिस्थितियाँ कविता के प्रतिकूल होने के बावजूद एक आशा और विश्वास अभी भी शेष है। क्योंकि गिनती में कम ही सही किन्तु ऐसे साहित्य साधक अभी भी सक्रिय हैं जो बिना किसी लोभ-लालच के कविता की भाव-भंगिमा और उसके स्वरूप की रक्षा के लिए अनवरत साधना कर रहे हैं। मेरा मानना है कि कविता मनुष्य की रागात्मक वृत्ति है इसलिए यह कभी समाप्त नहीं हो सकती।  
कल्पना- रचना धर्मिता के लिए इतिहास-समाज का ज्ञान होना कितना आवश्यक है?
विकल- इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व मैं लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करना चाहूँगा। मेरे विचार से अतीत की पृष्ठभूमि पर वर्तमान संसाधनों का उपयोग करते हुए भविष्य के लिए राजपथ का निर्माण करना ही लेखन का उद्देश्य होता है। हमारा इतिहास, हमारी सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि हमें बहुत कुछ सीखने को देती है, जिसमें कुछ अनुकरणीय होता है तो कुछ को समयानुसार परिवर्तन की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से हमें हमारे इतिहास, समाज, राजनीति, दर्शन, अध्यात्म, मनोविज्ञान आदि अनेकानेक विषयों का गहन अध्ययन होना आवष्यक है। लेकिन यहाँ यह भी कहना जरूरी है कि हमारे अन्दर एक विश्लेषणात्मक दृष्टि का होना भी अनिवार्य है। यही दृष्टि हमारे अन्दर ग्राह्य और त्याज्य विवेक का संचार करती है। यही विश्लेषणात्मक दृष्टि न केवल हमारे वर्तमान सृजन का आधार बनती है अपितु भविष्य के लिए हममें एक दूरगामी चिन्तन दृष्टि का विकास भी करती है।
कल्पना- महाकवि रामधारी सिंहदिनकरकी कृतिकविता और शुद्ध कविताकिसका पर्याय लगती है?
विकल- समग्र जीवन का। दिनकर जी की यह कृति मात्र एक निबन्ध संग्रह ही नहीं है बल्कि इसके विभिन्न अध्याय एक ही विषय के क्रमिक विस्तार प्रतीत होते हैं। दिनकर जी की उक्त कृति के प्रकाश में विचार करें, तो कविता की चर्चा केवल कविता की चर्चा नहीं हो सकती, उसमें समूचा मानव जीवन समाहित होता है। जीवन का प्रत्येक क्रिया व्यापार समाहित होता है। कविता लोक के राग, विराग और संघर्ष का समुच्चय कही जा सकती है। तदनुसार इस समुच्चय की पड़ताल किये बिना कविता को भी नहीं समझा जा सकता।
कल्पना- आपके व्यक्तित्व में कविता और सहजता का अनूठा मेल देखने को मिलता है। इसे आप कैसे सहेजते हैं?
विकल- आपके इस प्रश्न में तीन शब्द प्रमुख रूप से प्रयुक्त हुए हैं-व्यक्तित्व, कविता और सहजता। मैंने शुरुआतमें ही आचार्य शुक्ल के हवाले से जिक्र किया है कि हृदय की मुक्तावस्था ही रसदशा है। सारे बौद्धिक छल-प्रपंचों से मुक्त होने पर ही हृदय की तरलता का अनुभव किया जासकता है। यही तरलता व्यक्तित्व में सहजता का निर्माण करती है। मुझे ऐसा लगता है किकवि होने की प्रक्रिया बाद में है, पहले मनुष्य होना पड़ता है और मनुष्य होने के बाद उसका सहज होना बहुत जरूरी है। जटिल होना आसान है किन्तु उसकी तुलना में सहज होना उतना ही कठिन होता है। हमारा अहं हमें सहज नहीं होने देता। हमारा रूप, रंग, देहयष्टि, वैभव, कुटुम्ब, जाति, कुल, ज्ञान हमारी डिग्रियाँ आदि अनेक घटक है, जो हमें सामान्य से अलग विशिष्टता का बोध कराने के लिए निरन्तर सक्रिय रहते हैं। इनसे बचने का एक ही उपाय है खुद कोस्वसे मुक्त कर लेना। अर्थात वैयक्तिक से निर्वैयक्तिक हो जाना। कविता के लिए भी यह दशा अनिवार्य प्रतीत होती है। जब तक हमारे अन्दर लोक चेतना जाग्रत नहीं होगी कविता का सामीप्य दुर्लभ प्रतीत होता है। अब इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि हम कविता के जितना नजदीक पहुँचने का प्रयास करते हैं हमारे अन्दर सहजता का विकास स्वयमेव होता जाता है। मेरी यही कमजोरी है या ताकत है कि कविता का सामीप्य पाने की ललक हर समय मन में बसी रहती है। कई बार यह बहुत आनन्दित भी करती है, तो कई बार बहुत व्यथित भी। सम्भवतः यही मेरे स्वभाव या मेरे व्यक्तित्व में प्रतिबिम्बित होता हो। 
कल्पना- संस्कृति के जनपथ पर चलते हुए रचनाकर्म और जीवन में आप तालमेल कैसे करते है?
विकल- यह बड़ा दुरूह प्रश्न कर दिया आपने। प्रायः आम धारणा होती है कि जो व्यक्ति लेखन कार्य कर रहा है, वह अकादमिक क्षेत्र से ही जुड़ा होगा। सबसे पहली जटिलता कहें या विसंगति कहें, यहीं से शुरू होती है। हिन्दी साहित्य रचना के संवेदनशील क्षेत्र का विद्यार्थी हूँ और आजीविका के लिए नितान्त संवेदनाहीन या तकनीकी विभाग (बीएसएनएल) में वह भी लेखा अधिकारी पद पर नौकरी कर रहा हूँ। यह दोनो काम उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों को एक साथ साधने जैसे हो जाते हैं। फिर भी साहित्य प्रेम अन्तरात्मा में प्राणतत्व के रूप में बसा है। उसे तो छोड़ नहीं सकता और पारिवारिक - सामाजिक दायित्वों के निर्वाह एवं आजीविका के लिए यह नौकरी भी विवशता है। यथाशक्ति दोनों के साथ न्याय करने की कोशिश करता हूँ। दूसरी दुरूहता की बात करने के लिए मुझे अपनी वैयक्तिक पृष्ठभूमि पर नजर डालनी होगी। भारत ही नहीं, प्रदेश के भी अति निरीह और पिछड़े हुए सीधी जिले के जिस गाँव में, जिस परिवेश में मैंने जन्म लिया और अपना बचपन बिताया, वहाँ मेरे पूरे गाँव में पढ़ने - लिखने जैसे फालतू काम के लिए किसी के पास, न तो समय था न ही रुचि। बाद में पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में अपने गृह जिले से बाहर निकलने पर जाने कब यह रोग मुझे लग गया। महाविद्यालयीन छात्र जीवन के दिनों में, मुझे जब यह रोग लगा उन दिनों यदा-कदा कभी कुछ लिखता था तो छिपाना पड़ता था, कि कोई जान गया कि यह कविता लिखता है तो गनीमत नहीं। बाद में धीरे-धीरे लेखन के क्षेत्र में घिसटते हुए जब कुछ आगे बढ़ा तो छिपाना तो नहीं पड़ा, लेकिन अपने ही घर में मैं खुद अजूबा हो गया। मेरे परिवार में कविता के प्रति कितनी अनुकूलता होगी, इससे ही समझ लें कि यदि कविता के नाम परअक्षर कहना पड़े तो मौन साध लेंगे लेकिननहीं कहेंगे। खैर अब तक एक समझौतावादी दृष्टिकोण विकसित हो चुका है। तमाम तरह की खींचातानी के बाबजूद अब बहुत अधिक विचलित नहीं होता। जैसे-तैसे नौकरी और घर परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए, जितना भी समय निकाल पाता हूँ उसका अधिकाधिक उपयोग साहित्य सेवा के लिए ही करता हूँ।  
कल्पना- आपकी रचनाओं मेंगीत, ग़ज़ल, छन्दमुक्त या अन्य विधाओं में सर्वत्र एक प्रकार की छटपटाहट है, मानव मूल्यों और अधिकारों की सुदृढ़ आवाज हैजिसे कागज पर उकेरना आसान नहीं। किन्तु आप सहजता से कहजाते हैं। कैसे?
विकल-  कविता का मूल आधार ही संवेदनात्मक आवेग है। वह भीस्वसे परे। अर्थात भावों का समष्टिगत ग्रहण। इसके लिए लोक चेतना औरयुगीन चेतना दोनों का साक्षात्कार होना आवश्यक होता है। ऐसा मेरा विश्वास है। इससाक्षात्कार के लिए रचनाकार के सामने कल्पना लोक में विचरण करना एक विकल्प होता हैतो प्रत्यक्षीकरण दूसरा। हर एक रचनाकार कल्पना तत्व का सहारा लेता है किन्तु यदि उसके साथ अनुभवों का योग हो जाय तो बात कुछ और ही होती है। मैंने अभी आपकोअपनेजन्म स्थान, वहाँ की परिस्थितियों का संकेतकिया है। एक और तथ्य का उद्घाटन जरूरी लग रहा है। हर दृष्टि से पिछड़े जिले के एकगाँव के गरीब ब्राह्मण परिवार में सन् 1960 में मेरा जन्म हुआ था। जैसा कि मेरे पूर्वजों ने बताया, देश 1960 के भीषण अकाल से जूझ रहा था। एकतो वैसे ही हालत खराब थी उस पर भी अकाल का तड़का। वातानुकूलित कमरों में बैठकर जिसगरीबी, भूख, विपन्नता या अन्यान्य तरह की पीड़ा का चित्रण हमारे वर्तमान साहित्यमें प्रायः देखा जाता है, मैंने उन्हें बहुत नजदीक से नकेवल देखा है वरन भोगा भी है। भूख कैसी होती है, मैंने बचपन से ही इसे अनेक बार अनुभव किया है। स्कूल की पढ़ाई केदिनों में जब किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे और मेरे पितामह, वह कक्षा उत्तीर्ण कर चुके विद्यार्थियों से मेरे पढ़ने के लिए पुरानीकिताबें मागकर ले आते थे, तब मुझे अभाव समझ में आने लगाथा। कितना - कितना गिनाया जाय। यह एक महागाथा है। इसीलिए मेरी कविताओं में यह पक्षजब आता है तो मुझे कल्पना करने की जरूरत नहीं पड़ती। मेरा बचपन, मेरा गाँव मेरे सामने आकर खड़े हो जाते हैं। वह अपनी कहानी कहने केलिए पीड़ा और भाव ही नहीं शब्द भी लेकर आते हैं। मैं निमित्त मात्र होता हूँ। असलरचना तो उन अनुभवों से छन कर आती है। अपने इन्हीं अनुभवों के चलते मुझे इस समूचीभावदशा से अनजाने ही प्रेम हो गया। आज भी जहाँ कहीं उनसे मेरा सामना होता है, मैं उनका आदर करते संकोच नहीं करता। यही कारण है कि यह सब बहुत सहजऔर स्वाभाविक रूप में मेरी रचनाओं में व्यक्त होता है और चूँकि यह अनुभव सुखद नहींकहे जा सकते, इसलिए समूची मानवता के प्रतिइनसे मुक्ति की छटपटाहट भी स्वाभाविक है।
कल्पना- अब एक आखिरीप्रश्न । क्या कवि हमारे जन्म के साथ जन्म लेता है, या समयानुसार उसका प्रादुर्भाव होता है?
विकल- मुझे ऐसा प्रतीतहोता है कि जन्म से ही कुछ लोगों को आन्तरिक स्वभाववश कुछ ऐसे गुण प्राप्त होतेहैं, जो उन्हें संवेदनशील बनाते है।रही कवि होने की बात तो यह उसी संवेदना की अभिव्यक्ति है। यदि मनुष्य के अन्दरसंवेदनशील हृदय ही नहीं हो तो उसे पढ़ाई, डिग्री, वातावरण या समय आदि का प्रभाव काव्य प्रेमी तो बनासकता है कवि नहीं।हाँ इतना जरूर है कि यदि काव्य प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को समुचित वातावरण औरप्रोत्साहन मिले तो उसके विकास की गति को जरूर प्रभावित किया जा सकता है।
                                               

२०१७ में लिया गया साक्षात्कार जो ( हस्ताक्षर वेव पत्रिका में संरक्षित है, साभार)  

डॉ. विकल का पता-
वाटर प्लाट नं. 685/19 फिल्टर प्लांट के पास,
तुलसीनगर नौढ़िया          
सीधी (म.प्र.)  486661  
मोबा० 9425177374/09479825125
                               


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