स्त्री: सभ्यता की सहेली



सभ्यता केवल इमारतों, तकनीकों या साम्राज्यों की भव्यता से नहीं, बल्कि उसका सच्चा रूप तब प्रकट होता है जब मनुष्य अपनी आदिम वृत्तियों, भय, स्वार्थ और हिंसा, से ऊपर उठकर करुणा, सहयोग और सृजनशीलता की ओर अग्रसर होता है। यही वह बिंदु है जहाँ सभ्यता मात्र बाहरी संरचना न रहकर संस्कृति का रूप लेने लगती है। इस विकास-यात्रा में स्त्री का योगदान मौन किंतु अत्यंत गहरा रहा है। स्त्री सभ्यता की केवल दर्शक नहीं, बल्कि एक सहेली, संवाहिका और उसकी आत्मा की तरह रही है।

आदि काल से ही स्त्री ने जीवन को अपने कोमल स्पर्श से दुलराया है। शिशु की पहली मुस्कान में उसकी ममता झलकती है, घर की पहली किलकारी में उसकी गुनगुनाहट समाई है, समाज की पहली वाणी में उसकी लोरी की गूँज है। वह हर बार जीवन को दिशा देती आई है। कभी माँ बनकर सुरक्षा और पोषण प्रदान करती है, कभी साथी बनकर सहयात्रा और संबल देती है, तो कभी सृजनशील आत्मा बनकर नए विचारों, नए रूपों और नए संस्कारों का बीजारोपण करती है। स्त्री ने ही जीवन को अस्तित्व से अनुभव, और साधन से साधना तक की यात्रा कराई है।

यदि हम इतिहास की पगडंडियों पर लौटें तो स्पष्ट दिखाई देता है कि स्त्री को केवल गृहणी या पालन करने वाली के संकुचित दायरे में नहीं बाँधा जा सकता क्योंकि स्त्री समाज की आधार-शिला रही है, जिसकी नींव पर संस्कृति और सभ्यता का भवन खड़ा हुआ। भारतीय परंपरा ने उसे ‘शक्ति’ कहकर उस ऊर्जा और सामर्थ्य का प्रतीक माना, जो समूचे जीवन को गति देती है। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने भी स्त्रियों की शिक्षा और शासन में भागीदारी की वकालत की थी, क्योंकि बिना स्त्री की सक्रिय उपस्थिति के समाज का संतुलन संभव नहीं, वह जानता था। कहा जा सकता है कि सभ्यता की शुरुआत स्त्री से शुरू होती है। जब मानव ने बीज को संजोकर खेती का मार्ग खोजा, तो वह किसी स्त्री की दूरदृष्टि ही रही होगी। जिसने समझा होगा कि मनुष्य के लिए अन्न को भविष्य के लिए सुरक्षित करना जरूरी है। जब भाषा की ध्वनियाँ पहली बार अर्थ पाकर रही होंगी तब स्त्री के कंठ से लोरी के शब्द फूटे होंगे। लोरी की गूँज ने केवल बच्चे को सुलाया ही नहीं, बल्कि मानव समाज को संवाद का उपहार भी दिया। अनगिनत यज्ञ, पर्व और अनुष्ठान की विधियां निर्मित हुईं और जिनसे समाज की सांस्कृतिक स्मृतियाँ बनीं, उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रखने वाली गृहिणियाँ ही थीं, जिन्होंने अपने श्रम और विश्वास से परंपराओं में प्राण फूँके। इतिहास गवाह है कि सभ्यता की आत्मा किसी राजसत्ता या युद्ध की विजय में नहीं, बल्कि स्त्री की उस मौन साधना में छिपी है, जिसने जीवन को निरंतरता दी, उसे दिशा दी और हर बार उसे अधिक मानवीय बनाया

भारतीय दार्शनिक परंपराओं में भी स्त्री को केवल देह या भूमिका के स्तर पर नहीं, बल्कि उस मूल ऊर्जा के रूप में देखा गया है, जिससे समस्त जीवन संचालित होता है। सांख्य दर्शन पुरुष और प्रकृति के द्वंद्व का उल्लेख करता है। यहाँ ‘प्रकृति’ का अर्थ केवल धरती, वृक्ष या भौतिक जगत भर नहीं है, बल्कि वह सृजनशील शक्ति है जो जन्म देती है, पोषण करती है और रूपांतरित करती है। यह शक्ति स्त्री में सबसे स्पष्ट और गहन रूप से प्रत्यक्ष होती है। उसके भीतर ही सृजन और संरक्षण की यह द्विविधा ऐसी सामंजस्यपूर्ण रीति से विद्यमान है कि जीवन आगे बढ़ता है।

बौद्ध परंपरा ने करुणा को मानव जीवन का केंद्रीय मूल्य माना और करुणा का मूर्त रूप स्त्री में देखा गया। शिशु की देखभाल हो या रोगी का उपचार, स्त्री का स्पर्श केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक स्तर पर भी शांति और आश्वासन प्रदान करता है। जैन धर्म ने अहिंसा को सर्वोच्च साधना माना और यह भी मान्यता दी कि हिंसा-त्याग की सबसे सहज प्रेरणा स्त्री की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से आती है। उसकी संवेदना प्राणी-मात्र के प्रति करुणा जगाती है और यही करुणा समाज को हिंसा से बचाती है।

इस प्रकार धर्म और दर्शन दोनों ने स्त्री को सभ्यता की सहेली की तरह ही प्रतिष्ठित किया है। वह जो केवल मार्ग नहीं दिखाती, बल्कि उसे मानवीयता और कोमलता से आलोकित भी करती है। उसका अस्तित्व जीवन की कठोरताओं को संतुलित करता है और सभ्यता को केवल विकास नहीं, बल्कि संवेदना भी प्रदान करता है।

उसी तरह साहित्य सभ्यता का दर्पण है। और इस दर्पण में स्त्री का प्रतिबिंब अनगिनत रूपों में दिखता है। महाकाव्यों से लेकर लोकगीतों तक, स्त्री जीवन और प्रेम की वाहक के रूप में प्रकट होती है। रामायण की सीता केवल त्याग की प्रतिमा नहीं, बल्कि धरती की सहनशीलता और आत्मबल की छवि है। महाभारत की द्रौपदी केवल संघर्ष का प्रतीक नहीं, बल्कि अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की चेतना है। भक्ति साहित्य में मीराबाई और लल्लेश्वरी जैसी स्त्रियाँ आत्मा की स्वतंत्रता को स्वर देती हैं।

आधुनिक युग में भी साहित्य ने स्त्री को सभ्यता की सहेली की तरह से ही चित्रित किया है। अंबेडकर ने स्त्रियों के अधिकार को सामाजिक क्रांति का आधार माना। हिंदी साहित्य में महादेवी वर्मा ने उसे संवेदना की मूर्ति कहा, जबकि कमला भसीन ने स्त्री को समानता की चेतना से जोड़ा।

मानव प्रगति में विज्ञान की भूमिका निर्विवाद है। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में भी स्त्री की उपस्थिति उतनी ही निर्णायक रही है। प्राचीन आयुर्वेद की जानकार वैद्य स्त्रियाँ हों या आधुनिक युग की मैरी क्यूरी, रोसलिंड फ्रैंकलिन और कल्पना चावला आदि इन सबने यह प्रमाणित किया कि स्त्री केवल भावनाओं की नहीं, बुद्धि और अनुसंधान की भी धनी है।

विज्ञान जब मानवीय जीवन को सुविधाजनक बनाता है, तो स्त्री उसकी मानवीयता की कसौटी है। वह पूछती है कि यह विकास किसके लिए है? क्या यह जीवन को सरल करेगा या उसे और जटिल? इस प्रकार, विज्ञान और स्त्री का रिश्ता केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन के उद्देश्य से जुड़ा है।

सभ्यता की यात्रा में यदि हम गहराई से देखें तो पाएँगे कि समाज की पूरी संरचना का आधार स्त्री ही रही है। परिवार, रिश्ते, समुदाय और परंपराओं की प्रविधियां अपने आप नहीं बनी, इसके धागे स्त्री के श्रम, धैर्य और संवेदना से बने। वह केवल जन्मदात्री नहीं है, बल्कि वह संबंधों की सूत्रधार है, वह जो खून के रिश्तों को स्नेह में बदलती है, जो अनजानों को अपनापन देकर परिवार और समाज का हिस्सा बनाती है। घर की चारदीवारी में रहते हुए भी वह घर को केवल रहने की जगह नहीं रहने देती, वह उसे आश्रय, संवाद और सीखने की पाठशाला बना देती है। वही रसोई को केवल भोजन बनाने का स्थान न रखकर उसे साझा करने, बाँटने और अपनाने की जगह बनाती है। वही शिक्षा को केवल अक्षर ज्ञान न मानकर उसमें संस्कार, अनुशासन और मूल्य भरती है। वह परंपराओं को सिर्फ याद नहीं रखती, बल्कि उन्हें जीवन की गति में उतारकर आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाती है।  जब-जब समाज ने स्त्री की भूमिका को नकारा, उसे केवल दासता या उपभोग की वस्तु मान लिया, तब-तब मानवीय सभ्यता की छवि विकृत हुई। मिस्र और रोम जैसे साम्राज्यों का पतन केवल बाहरी आक्रमणों से नहीं हुआ, भीतर के असंतुलन ने भी उन्हें कमजोर किया, और उस असंतुलन का एक बड़ा कारण स्त्री के प्रति अवमानना थी। इसके विपरीत, जहाँ स्त्री को सम्मान मिला, वहाँ समाज अधिक रचनात्मक, सहनशील और स्थायी हुआ।

आज के समय में जब तकनीक हमारे जीवन को दिशा दे रही है, तब यह प्रश्न और गहरा हो जाता है कि क्या हम स्त्री को बराबरी का स्थान दे पा रहे हैं  या नहीं? अभी भी लिंगभेद, हिंसा और असमानता की छायाएँ स्त्री को घेरती हैं। लेकिन यह भी सच है कि आज स्त्री हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। विज्ञान, राजनीति, साहित्य, खेल, कला। वह साबित कर रही है कि सभ्यता उसके साथ चलने वाली सहचरी है। क्योंकि स्त्री जिस तरह से अपने शिशु की परवरिश करते हुए उसका मार्ग उन्नत बनाती है, उसी तरह सभ्यता को भी रूपांतरण करते हुए चलती है। स्त्री ही जीवन में करुणा भरती है, संबंधों में विश्वास जगाती है, और भविष्य को आशा की डोर से बांधती है।

अतएव मनुष्य को समझना होगा कि उसके सभ्य होने की सबसे बड़ी पहचान यह नहीं कि उसने कितने महल बनाए, कितने युद्ध जीते या कितनी मशीनें खोजीं। असली पहचान तो इस बात में है कि उसने अपनी सहगामी स्त्री को कितना सम्मान दिया, कितनी स्वतंत्रता दी और उसके साथ कितनी समानता से विचार कर पाया। समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम का कहना था, “परिवार समाज की नैतिकता का आधार है और इस आधार को स्थिर बनाए रखने वाली सबसे बड़ी शक्ति स्त्री है।” यही कारण है कि जब भी किसी सभ्यता ने स्त्री की भूमिका को सीमित किया, उसका पतन तेज़ी से हुआ।  

मानवीय सभ्यता अपने वास्तविक स्वर्ण युग में तभी प्रवेश कर सकती है, जब पुरुष स्त्री को किसी उपाधि, किसी भूमिका या किसी परंपरा की सीमा में बाँधकर न देखे, बल्कि जीवन के केंद्र के रूप में स्वीकार करे। सभ्यता की जड़ें तभी गहरी होंगी जब स्त्री और पुरुष दोनों समान भागीदार बनकर, एक-दूसरे की गरिमा और स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए आगे बढ़ेंगे।
स्त्री को केवल जन्मदात्री या गृहणी मान लेना उसके अस्तित्व को संकुचित करना है। वह विचारों की वाहक भी है, संवेदनाओं की संरक्षिका भी और नए रास्तों की खोज करने वाली आत्मा भी। जब समाज उसे मनुष्य की तरह पूरी गरिमा के साथ देखेगा, सुनेगा और समझेगा, तभी उसकी सृजनशीलता का पूरा प्रकाश सामने आएगा।
इतिहास गवाह है कि जिन सभ्यताओं ने स्त्री को दबाया, वहाँ जीवन की धारा सूख गई। और जहाँ स्त्री को सम्मान मिला, वहाँ करुणा, सौंदर्य और ज्ञान ने मिलकर संस्कृति को गहराई मिली। यही वह क्षण होगा जब सभ्यता सचमुच स्वर्ण युग की ओर कदम बढ़ाएगी, जहाँ स्त्री केवल किसी की सहायक नहीं, बल्कि अपनी संपूर्ण अस्मिता में एक स्वतंत्र, विचारशील और सम्मानित मनुष्य के रूप में खड़ी होगी।
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Comments

  1. बेहद शानदार आलेख 🌹🌹 आपको हार्दिक शुभकामनाएं कल्पना जी💝🌿💐

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  2. अत्यंत महत्वपूर्ण, विचारोत्तेजक आलेख! हार्दिक शुभकामनाएं कल्पना मनोरमा जी।

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  3. नारी की गरिमा को गौरवान्वित करता सुंदर आलेख

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