कविता



कविता नहीं जानती 
अंतर
स्त्री और पुरुष में
वह जानती है तो उद्भावनाओं
के चर्म को
कविता अपने समय का सौभाग्य रचती है
या कि बचती है जटिलताओं से

कविता विचारों का लबादा नहीं
सूक्ष्म पड़ताल है धड़कते हुए
सच्चे शब्दों की

कविता मनोरंजन नहीं
करती है व्यक्ति को
सिरे से आक्रोशित या सिरे से स्पंदित
कविता आंदोलन नहीं
बल्कि आंदोलन केे बाद की
कार्यबाही है

ठेठ कविता उछल -कूद कर
पा ही लेती है अपना उचित स्थान

जैसे बिल्ली लाँघते-छलाँघते
दिखा ही लाती है अपने बच्चों को
सात घरों के कोने

कविता पिता का शोरगुल नहीं
माँ की समझदारी है
कविता सम्मान पाने की
सीढ़ी नहीं
बेज़ुबानों की जुबान है

कविता कवि का कौतूहल है
कसमकश नहीं ,स्त्री या पुरुष की
बेसुरे वक्त के साज पर
कविता आवाज़ है 
अपनी-सी ।

-कल्पना मनोरमा 

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