स्त्री




जैसे धरती में होता है
थोड़ा -सा आकाश
आकाश में थोड़ी-सी
धरती
वैसे ही
हर स्त्री के भीतर होता है
टुकड़ा भर पुरुष
हर पुरुष के भीतर होती है
टुकड़ा भर स्त्री

इस बात पर पक्का
यक़ीन कर

हे स्त्री !
तुम खिलना फूल भर
चलना रास्ता भर
बहना पूरी धारा भर
उगना सूर्य भर

क्योंकि जब भी
आये वक्त तुम्हारा होने को
अस्त
तो तुम्हारे अपने सो सकें
नींद भर
तुम्हारे बाद भी ।

-कल्पना मनोरमा 


Comments

  1. क्योंकि जब भी
    आये वक्त तुम्हारा होने को
    अस्त
    तो तुम्हारे अपने सो सकें
    नींद भर
    तुम्हारे बाद भी ।

    अद्भुत संवेदनशील रचना ,गहरी बातें है ,नमन आपको

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