शब्दों का अधपका फल




कुछ खो गया है 
क्या खोया है ?
ठीक से कह नहीं सकती 

हाँ उसे पाने की तड़प
इस कदर रह -रहकर तड़पा जाती है 
किऔचक ही ढूँढने लगती हूँ
अपना खोया हुआ समान 

रंग,खुसबू और बनावट पहचानते हुए भी 
बता नहीं  पाती
फिर क्यों होता है खो जाने का एहसास 
कैसी होती जा रही है
हमारी सोच 

फ़ैसला किया ही था कि नहीं ढूँढूँगी
कोई भी खोया हुआ सामान 
कि अचानक बढ़ने लगा पारा 
स्मृतियों का 


कुछ धुँधला-धुँधला उभरने लगता है  
आँखों के सामने 
जैसे साँझ होते चमकने लगते हैं 
जुगनू रेत में 
जैसे काजल भरी आँखों में चमकती है 
नन्हें शिशु की मचलन भरी 
मुस्कान 

मुझे उल्झन में उल्झा देख 
समझ ने दिखाई समझ 
तो मन तोड़ लाया
झट से सन्नाटे के वृक्ष से 
शब्दों का अधपका फल 

मैंने भी रख दिया जल्दी से उसे 
धैर्य के अनाज में 
जब कभी पकेगा
तो बाँटूँगी सभी में 
थोड़ा -थोड़ा ।

-कल्पना मनोरमा 

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