महोदय

चित्र - अनुप्रिया 
शादी, घर की हो या बाहर की, हज़ार काम लेकर आती है। क्या मिरचंदानी से खाते हुए चलें? जल्दी सोयेंगे, तभी जल्दी घर से निकल सकेंगे।देवर की शादी के लिए शॉपिंग से लौटते हुए मैंने पति से कहा,उस पर आपने कहा।

अरे यार! बाहर का खाना, नो-नो....। तुम चिंता मत करो, मैं मदद करूँगा,साथ में कॉफी पिएँगे और ढेर सारी बातें….छुट्टी पर हूँ न!”  

 

विश्वास मुझे करना था, सो कर लिया। फिर भी बंदा अगर एक चम्मच भी इधर से उठाकर उधर रख देता तो बुद्धू बनने का दुःख कम होता। ऊपर से,”थकान ज्यादा है,इसलिए सोने जा रहा हूँ। वरना क्या मेरा साथ देते?” नींद उड़ी आँखें और खिसियाया मन जब खर्राटों से विचलित होने लगा तो मैंने उनकी नाक दबा दी। आवाज़ से राहत तो मिली लेकिन थकी पलकें भीगती चली गईं। बेवक्त के हंगामें से नींद कोसों दूर छिटक गई। जल्दी से सॉरी बोलकर मैंने करवट बदल ली। साँसों का तूफान थमा तो सोने की कोशिश करने लगी। बहुत देर इधर-उधर करते हुए जब बिस्तर चुभने लगे तब घड़ी देखी; सुबह के पाँच बज रहे थे। चुपचाप बालकनी में आकर बैठ गयी। झुँझलाहट भरी देह और सुबह की नरमाहट, बचपन की सुधियाँ मचल पड़ीं। 

 

ऐसे ही धुंधलके में लैंप जलाकर माँ मुझे पढ़ने बैठा देती थीं। रात तब भी मुझे शांत भाव से ही ताकती थी और अधसोई माँ को मैं। वह अलग बात थी, तब मेरी नींद कभी खुलना नहीं चाहती थी और माँ मुझे चैन से सोने नहीं देना चाहती थी क्योंकि मुझे सिखाने के लिए उनके पास कार्यों की लम्बी सूची होती थी। अगर मैं ये जानती कि बाद में इतना जागना पड़ेगा तो संन्यासियों जैसी त्याग-तपस्या करने से साफ़ इंकार कर देती। जिंदगी तब भी मौन थी और आज भी…।” 

 

किस्मत की दुहाई देते हुए मैंने कॉफी-कैटल का स्विच ऑन कर दिन का शुभारम्भ किया। कहबा की खुशबू के छल्ले उड़कर जब नासापुटों को सहलाने लगे तो किचन टॉप पर अल्साई बैठी मैं, स्फूर्ति से भर गयी। गाढ़ी अनुभूति में आँखें खोलीं तो उजाले की रेखा सूरज की चुगली करती हुई-सी लगी। दूर क्षितिज पर एक-दो पंछी आसमान बुहार रहे थे। वहीं से मेरा और रात का साथ छूटा तो छूटता चला गया।

 

***

"कलाss! कहाँ हो ?"

पति ने बुलाया नहीं एक गायकी आलाप ली। काम की व्यस्तता इतनी कि मुझे लगा मैं रसोई में नहीं, कहीं कुएँ के तल में बैठी हूँ। "जीss, कहिये।" वहीं से मैं बोली।

"नितेश की शादी में जाना है, या बस सोते ही रहना है?”

बंदा जैसा खुद होता है, वैसा ही सोचता है।कहा नहीं, बस सोचा। उन्हें अचानक जिम्मेदारी का बोध हो आया था लेकिन मेरे भाग्य में कहाँ! सो गुस्सा साँसों में उतर आया। फिर भी मन की मलामत दबाते हुए कहा। "आप सोच लो, मैं तो तैयार हूँ!

अबे यहाँ तो आओ! नाराज़ क्यों होती हो सुबह से!

"सुबह? दोपहर होने में बस्स आधे घंटे की कमी है, सोये रहो, शादियाँ तो होती ही रहती हैं संसार में…।

 

रात की गुस्सा याद कर मैंने कहा और बुदबुदाते हुए खिड़की के पर्दे खींच दिए। एकाएक उजाला आँखों पर पड़ने से उन्हें तकलीफ़ हुई सो पर्दे बंद करने का फ़रमान सुना दिया। नहीं मानने का मतलब था फिर से झगड़ा सो चुपचाप पर्दे लगा दिए। 

"अब बोल भी दो...।" कुढ़न दबाते हुए मैंने कहा। 

"अच्छा सुनो, एक गिलास गुनगुना पानी, स्लीपर, शेविंग-किट दे दो और ज़रा मेरा मोबाइल भी चार्जिंग पर डाल देना।उन्होंने नज़ाकत से कहा जैसे उनके सामने रूम सर्विस खड़ी थी। कहाँ वे विनम्र औरतें और कहाँ मैं! सो सहजता से कुछ भी ले न सकी और ब्याहता हूकें पीते-पीते मेरे चेहरे पर गहरीं पीरें पसर गयीं। 

 

"इन्हीं कारणों से शादियों में काठ पैदा होने लगता है।"

"मैं समझा नहीं…।

"कोई बात नहीं; आप अपनी कहो।

"ठीक है, जब नाश्ता लग जाये तो बता देना। नाश्ता या लंच...?” 

“......” 

अच्छा, बोलोगी नहीं? ओके ओके! अच्छा मेरेअंडरगार्मेंटसबाथरूम में रखो,मैं अभी आया।"   कामुक अंगड़ाई लेते हुए उन्होंने शीशे में निहारा ख़ुद को और कहा,“कला यू आर सो हॉट!” 

ओहो! पसीने से तर मैं! आंनद में डूबे आप! और फिर भी हॉट मैं! झूठे लोग,खोखली बातें।“ 

 

मैंने उन्हें उसी दृष्टि से देखा जिसमें खेद और खीझ दोनों मिली थीं। "पति को परमेश्वर मानो, वे ही तारणहारे हैंदादी-नानी की सिसकती मन बढ़ीं कहावतें याद आने से प्राण व्यग्र हो उठे। नवयुवक-सा दिन ऊधमी बच्चे-सा लगने लगा। पहले सोचा कि उनकी हर बात को खारिज कर दूँ लेकिन लड़ाई के डर से हौसला पस्त हो गया। 

 

"कुछ और हो, वह भी कह देते। रसोई कहीं नहीं जायेगी। वैसे भी बिना भेद-भाव के उसी ने मुझे समूचा स्वीकारा है।" मैंने तटस्थ रहने का उपक्रम किया।

"अब छोड़ो…. बाकी मैं ख़ुद देख लूँगा।” 

आँख मारते हुए पति ने मुझे देखा। मैंने बिना किसी प्रतिउत्तर के गंदे तौलिये उठाये और वॉशिंग मशीन की ओर लौटी ही थी कि पति महोदय की एक और फ़रमाइश हुई।  

कला, जूते-मौजों के साथ मेरे कपड़े भी देख लेनाआयरनकी ज़रूरत समझ आए तो कर देना। ओहो! तुम्हारा मुँह लाल क्यों लग रहा है? क्या मेड की छुट्टी कर दी? ये गलत किया तुमने…।” 

 

इन शब्दों के साथ उन्होंने मुझे खुश करने की उतनी ही जहमत उठाई थी जितनी च्विंगम पर चिपकी मिठास। मुझे भी उनकी रूमानियत नीम से कम कहाँ लगी थी।

शादी जब तक समझदार नहीं बनती तब तक पति की चालाकियाँ होशियार पढ़ी-लिखी बीवी को भी समझ नहीं आतीं। और स्त्री सिर धुनते-धुनते पत्थर में बदल जाती है। हाँ,शिला बनी स्त्री की औलाद यदि इंसान निकली तो मूर्ति बन सकेगी, नहीं तो पड़ी रहेगी किसी कोने अंतरे। राम आने से रहे अब।

 

खिसियाते-बड़बड़ाते उनका माँगा उन्हें प्राप्त हो चुका था लेकिन मुझे..? इससे न उन्हें मतलब था और न ही मैंने खुद को महत्व दिया था। तन-मन माँजना तो दूर मैंने कुछडिसाइडतक नहीं किया था। सुबह से यदि कुछ किया था तो वह फूलवाला, दूधवाला,अख़बारवाला और न जाने कितनेवालोंको फ़ोन करके समझा चुकी थी कि आज के बाद उन्हें कब से अपने काम पर पुनः लौटना है। 

 

क्या ये काम गिनाने लायक नहीं होते?” मैंने खुद से पूछा और निरुत्तर ही रह गयी।  

 

मात्र एक तुलसी का गमला रखने में पड़ोसिन ने ससुराल के पते से लेकर आधार कार्ड तक पूछ लिया था। एक पति है जो सिर्फ और सिर्फ अपनी कहता है। मूक परिधियों की अपनी लाचारी देखकर मैं दंग थी। मेरा जीवन विरोधाभासों में रहने का इतना आदी हो चुका था कि मैंने स्वयं को दंग रहने की अवस्था में ही छोड़ दिया और काम की आखरी खेप समेटने लगी। तब जाकर कहीं ढाई बजे साड़ी पहनने का नंबर आया।

 

"घर से जल्दी निकलेंगे, कहा था न! अब हो गई देर। माना कि तुम वी.आई.पी.एंट्री पसंद महिला हो लेकिन ये घर की शादी है,थोड़ा तो मेरे बारे में सोचा होता। अब जल्दी से नीचे आओ। मैं गाड़ी में इंतजार करता हूँ। और सुनो, ताले ठीक से लगाना।उनके ताने हमेशा मेरी समझ के परे ही रहते आ रहे थे सो उनकी बात को उनके पास ही छोड़कर मैंने कहा,”ठीक है, बेबी को सैंडिल पहनाकर अपने साथ लिए जाओ।"

"अच्छा! ये भी मुझे करना पड़ेगा? ‘वेरी गुडबनो कितनी भी महान लेकिन काम मेरे बिना चलता नहीं, हुन्न।”  

फिर छोड़ो…।" मैं बोली।

अब लाओ भी…।उन्होंने बेबी को सोफे पर दचक लिया। उनका आदमखोर अहम वातावरण में झन्न से उभरा और बालू में पड़े पानी की तरह बिला गया। 

"तुम इतनी बड़ी हो गई हो फिर भीचप्पलपहननी नहीं आती। जैसी माँ, वैसी बेटी!

"पापा ये तप्पल नहीं है...।

सुबकते हुए बेबी मुझे देखने लगी। उसके चेहरे से टपकती निरीहता मेरा सीना चाक कर गई। साड़ी बीच में रोककर,"आप जाइए! मैं पहना लूँगी।" सुनते ही सैंडिल बच्ची  को पकड़ाते, कानी ऊँगली में चाबी घुमाते हुए बंदा फुर्र।  

 

थोड़ी देर बाद गाड़ी सड़क पर दौड़ रही थी। पति सीटियाँ बजा रहा था और बेबी किलक रही थी। मैं उबले भात-सी सीट पर पसरी फुटपाथ की अफरातफरी देख रही थी। कुछ अच्छा देखने की चाहत में मेरी आँखें सड़क के किनारे ख़ाल गाँठते मोची, बोहनी के लिए तरसते ठेली वालों पर जा टिकी। मेरे अंदर उदास साँसों की बाँसुरी बज उठी। अचानक मुझे उलझन-सी महसूस होने लगी तो खिड़की से झाँकते हुए नज़रें ऊपर की ओर उठा लीं। वहाँ भी धूल के गुबार में सूरज लाल गाल लटकाये पीठ फेरने को आतुर दिखा।

 

"दर्द के जंगल में सुख की घास भला कौन चर सकता है? सबके हिस्से जीवन नामक एक बड़ा-सा पत्थर आया है। उसी को घसीटते जाना जैसे सबकी की नियति है।" इस विचार ने मेरी उदासी को घटाया नहीं बल्कि इजाफ़ा कर दिया। बहुत ढूंढने के बाद भी स्निग्धता जब नहीं मिली तो लगा कि मैं ही बहुत ज्यादा थक चुकी हूँ सो स्वयं से चिढ़कर आँखें मींच लीं। पलकें बोझिल होने लगी थीं। जितना मैं मौन होना चाहती थी, मेरी बिटिया प्रश्न बुनने के मूड में आ चुकी थी। उसके बावजूद मेरे होंठ शिथिल होकर एक-दूसरे से चिपक चुके थे। आँखों के किनारे कीचड़ फेंक रहे थे। रूमाल से कई बार पोंछना चाहा लेकिन नतीजा जस का तस रहा तो छोड़ दिया। जिस बात को मैंने छोड़ा था बस उसी को चुटकी लेते हुए पति ने उठा लिया।

"क्या हाल बना रखा है! कभी तो 'रोमांटिक फेस' बना लिया करो। दुनिया में औरतें कैसे पॉपकॉर्न की तरह फूटती रहती हैं। एक ये है लुटे-पिटे बनिये की तरह मसालों में डूबी एक बुझी-ठंडी औरत।

"कौन है ये आदमी...?" मेरे भीतर की स्त्री ने पूछना चाहा। मैं कुछ बोलती उसके पहले पति बोल पड़े।

"बनिए से ध्यान आया, तुमने सिलेंडर से गैस बंद की थी?"

"……"

"बोलती क्यों नहीं? बड़ी बालकनी का ताला…? तुम्हें मज़ाक लग रहा होगा? अभी एक हफ़्ते पहले सोसायटी में शर्मा-परिवार शादी में गया था,जब लौटा तो उन्हें घर साफ मिला।

वे लगभग कार की स्टेयरिंग पर झुक आये थे। उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। मैं अभी तक थकान से हलकान थी अब मेरे जी में भय फूट पड़ा था। मुझे अपने ऊपर भयंकर शक होने लगा लेकिन गाड़ी घर से इतनी दूर निकल आई थी कि लौटने का मतलब बारात का छूट जाना था। फिर भी मैं लौटकर संतोष कर लेना चाहती थी।

गाड़ी घुमा लो पाँच मिनट देर से पहुँचने में वहाँ कुछ नहीं बिगड़ेगा, मेरा घर राख हो जाएगा।मैंने कहा तो ज़ोर से लेकिन सुना नहीं गया। मैं एक के बाद एक काम याद करने लगी। माथा भन्नाने लगा पर गैस सिलेंडर से बंद करने का कोई सिरा पकड़ नहीं आया। बहुत सोचने पर भी जब हल नहीं निकला तो मौन प्रार्थनाएँ चालू हो गईं। "ये अटल अहवातीश्रद्धा-आस्था नामक दो शब्दों की दम से हम औरतों की दुनिया आवाद है।"

"क्या बुदबुदा रही हो? खुलकर बोलो कि तुम्हारा कोई दोष नहीं। जो होगा देखा जायेगा,तुम्हारी लापरवाही हम झेलेंगे! आख़िर पति जो ठहरे तुम्हारे!" गाड़ी चलाते हुए उन्होंने अपनी बाईं कोहनी मेरी छाती में गड़ा दी। मैं दर्द से कराह उठी।

"आगे देखो वरना…।" चोट सहलाते हुए मन मसोस कर कहा।  

"वरना क्या! बोले?” 

"शहर में आज कितनी शादियाँ हैं? हर दूसरी कार परफ़लाने परिणय ढिकानेपोस्टर चिपके दिखे जा रहे हैं।मैंने बात बदलने की गरज इसलिए की मन शांत बना रहे क्योंकि एक बार आँसू छलका तो घंटों रुकेगा नहीं।  

"क्यों, तुम्हें जलन हो रही है? सब मेरे जैसे नहीं होते हैं। शादीशुदा, कुँवारे।"

"अरे! मुझे क्यों होगी जलन? कुँवारे तुम हो सकते हो, मैं नहीं…।"

"बोलते-से परिणय पोस्टर और…।" पति ने द्विअर्थी आँखें नचाईं। अर्थ मैं भी समझ रही थी पररिएक्टनहीं किया। मैंने अभी पलकें झपकाई ही थीं कि फूलों से सजी एक लाल कार मेरी गाड़ी के शीशे खरोंचते हुए निकलती यदि महोदय बचा नहीं लेते। खैर!

"देखा? क्या कमाल का पोस्टर था।सुकेश परिणय सुनयना!मेरी बढ़ी हुई साँसें अभी थम भी नहीं पाई थीं कि इन्होंने मेरी टांग पर अब की करारी चुटकी काट ली। झुँझलाकर मेरा पारा हाई हो गया। 

"कितने भी पोस्टर बोलते-से क्यों न! हों, स्त्री की बोलती बंद करना सभी जानते हैं। कायदे से इन्हेंपरिणय पोस्टरनहींदमघोटूं पोस्टरकहना उचित होगा।क्षुब्ध मुस्कान ने मेरे होठों को छुआ जो पति को ज़हर होकर लगी।  

"कुछ कहा क्या?" 

"मेरे पास कहने को क्या है….? वैसे भी युग बीता मेरे, नहीं हमारे परिणय को…। गाड़ी ठीक से चलाइये सही सलामत घर भी लौटना है।”  

युग तो नहीं, हुलिया ज़रूर…! और ये क्या बार-बार गाड़ी ठीक से चलाओ की रट लगा रखी है।कहते हुए उन्होंने गाड़ी को पाँचवे गीयर में डाल दिया तो लगा इस आदमी के चक्कर में मुझे भी रोडरेज में धर लिया जायेगा। ऊपर से मैं अपनी हाय-तौबा में बेबी को जगाए रखना भूल गई थी।  

 

ये मध्यम वर्गीय माएँ भी न! पीछे की सीट खाली रहते हुए भी बच्चे गोद में लेकर सफर तय कर लेती हैं। मैं थके तन-मन के साथ अपनी भावनाओं को दुरुस्त करने लगी थी क्योंकि ससुराल की ओर मुड़ने वाले रास्ते पर लगा होर्डिंगकानपुर की शान पान पराग" मुझे दिख गया था। 

 

"सर तो ठीक से ओढ़ लो मैडम! हम घर पहुँचने वाले हैं। वैसे तो कोई रोक-टोक है नहीं।" पति ताव खाते हुए-से बोले, जिसे सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा। 

"ओढ़ क्या लें….? पल्ले पर तो बेबी सोई है।

"ओहो! तो पल्लू भी मैं…?"

मैंने घूमकर उन्हें देखा जैसे– फूलों के पालने से गाड़ी तक मुझे गोद में उठकर ये ही लाये थे, और कसमसाकर माथे तक घूंघट खींच लिया। दो-चार दुकानें छोड़कर गाड़ी घर के सामने खड़ी हो गयी। रंगीन बल्बों की लड़ियाँ और आम-पत्तों की बंदनवार से सजे घर को मैं देख ही रही थी कि पति की एक प्यारी-सी एडवाइस फिर लुढ़क आई।

 

हिंदी चेतना पत्रिका में प्रकाशित 

"ये पपीता जैसा चेहरा लटका कर मत रखो; थोड़ा हँसमुख-सा सुधार कर लो, बेहतर रहेगा। सामान गाड़ी में छोड़ दो,बेबी को लिए जाओ।"  

 

उन्होंने फर्ज़ अदायगी की एक मिसाल पेश की थी लेकिन सोते हुए बच्चे को लेकर चलना क्या इतना आसान होता है? ऊपर से मेरा एक पाँव सुन्न हो चुका था सो बेबी के साथ उसको भी जगाने का प्रयास करने लगी। 

 

"अच्छा ऐसा है! हम तुम्हारे नौकर तो हैं नहीं, जो गेट खोले खड़े रहेंगे; जल्दी से बाहर निकलो वरना चाचा जी यही सोचेंगे कि मैं तो बिल्कुल बीवी का गुलाम बन चुका हूँ।" उन्होंने झुककर कहा। 

चाचा जी, सब कुछ जान ही लेते हैं तो ये भी जान लेंगे कि गुलाम आप नहीं, मैं बन चुकी हूँ।” 

 

बोलकर मैं गाड़ी से उतरने लगी लेकिन उनके आहत पुरुषत्व ने अँगूठे और तीन उँगलियों से कुत्ते जैसा मुँह बनाकर मुझे समझाया कि मैं अपना मुँह बन्द रखूँ।ओके बाबाकह कर लगभग पाँच मिनट तक पाँव पटकने के बाद मैं चल पाई। बेबी के लिए मैं कृतज्ञ थी। 

 

घर में बारात जाने की तैयारियाँ पुरजोर चल रही थीं। कहीं हल्दी-अक्षत, साड़ी का मैचिंग ब्लाउज, दूल्हे का मौर, आल्ता की कटोरी माँगी जा रही थी, तो कहीं किसी के पति अपना बारात के लिए सजा हुआ सूटकेस माँग रहे थे।

इसका मतलब अकेली मैं ही बेचारी नहीं हूँ!अनकहा-सा संतोष मन में उभर आया। हल्की नजर से जायजा लेते हुए मेरी नज़र इंदौर वाली बुआ पर जाकर ठहर गयी जो चाय के लिए रट लगाए थीं।

अरे कोई मुझे भी चाय पिला दो, राम जाने मायके की देहरी फिर चढ़ने को मिले या ना…।” 

 

बुआ अपने उदगार आँखों से पोंछ रही थीं और मैं देर से पहुँचने का अपराध बोध समेटे जल्दी से कहीं किसी कोने में बैठकर नई-पुरानी हो जाना चाहती थी। ताकि किसी के पूछने पर कह सकूँ "समय तो नहीं देखा पर काफ़ी वक्त हुआ आए" कौन देखता है इतनी भीड़ में मुझे। सोचते हुए अधसोई बिटिया को कंधे पर लटकाए चप्पल छिपा ही रही थी कि बुआ ने देख लिया। 

 

"हाय राम! धीरज की बहू को देखो! हाथ में दीया लेकर आई है।"  

 

बुआ, अभी तो चार भी नहीं बजे और आपका अँधेरा-दीया होने लगा।कहना था लेकिन मेरा जिंदाबाद साहस का गुब्बारा धड़ाम से फटा और चिथड़े-चिथड़े होकर बिखर गया। मैं अपराधी नज़रों से सब की ओर देख रही थी कि कोई मुस्कुरा कर मुझे देखे, तो मैं भी हँसकर जश्न में शामिल हो जाऊँ।

 

"लो जी भाभी आ गईं।" ना जाने कहाँ से नितेश मोबाइल खोजते हुए बाहर निकला था। जहाँ बुआ को छोड़कर किसी ने मेरा आना नहीं जाना था, उसने बाहर-भीतर हंगामा मचा दिया। तभी शायद बुआ की चाय में एक कप मेरा भी जोड़ दिया गया होगा। थोड़ी देर में महाराजिन मेरे लिए भी ट्रे में चाय लेकर आई तो पता चला।

 

चाय पीते हुए मैंने देखा शादी का माहौल एक अलग उत्साह लेकर आया था। बूढ़ी औरतें भी अपनी शादी और सुहागरात की बातें याद कर हँसे जा रही थीं। घर की महिला मंडली चटख मेकअप और नए परिधानों में आ चुकी थी। मेरी बिटिया जाग चुकी थी सो मैंने अपना री-फ्रेश होना स्थगित कर दिया था। 

चटक मेक-अप में भी कोई-कोई स्त्री कितनी सुंदर लगती है! वो भी दिन के उजाले में, है न?” नितेश की बहन मेघा से मैंने वैसे ही कहा जैसे सामान्य जनकुछ तो कहनेके लिएकुछकह देते हैं। 

"अपनी-अपनी च्वाइस है भाभी। बट आई डोंट लाइक ऐनी मेकअप। भाभी, आपने एम. ए. का फॉर्म भरा?" उसने मेरा कंधा सहलाते हुए मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया।लेकिन अभी…कहते हुए फॉर्म के बाबत मेरे मुँह से एक भी शब्द और न निकल सका। उल्टे अपने विचारों में उलझी मैं उसके चहरे को ध्यान से देखने लगी। वैसे देखा तो पहले भी था मेघा को और ये पता भी था कि वह हम औरतों से वह अलग है। मेघा अपने भाई नितेश की शादी में पी.एच.डी की आखिरी थीसिस जमा करके आई थी। खादी के इंग्लिश ग्रीन कुर्ते के साथ नीली जीन और उसकी आँखों में अपने होने की चमक देखकर सुबह से पहली बार मुझे कुछ अच्छा लगा था। 

 

लेकिन क्या भाभी?” मेघा ने फिर कहा। दूसरों कीहाँ में हाँमिलाने वाली स्त्रियों के इर्दगिर्द रहने वाला मेरा दब्बू मन बोल ज़रूर न सका लेकिन मेघा के विश्वासी शब्दों में कुछ अटक-सा गया। उसी बीच मेरी आँखें पति से जा टकराईं। जिसे चाहती तो मैं बिल्कुल नहीं थी पर हुआ वही। तुरंत उनकी तरफ से इशारे से मुझे समझाया गया कि साड़ी बदल लूँ। जानबूझ कर मैं दूसरी ओर देखने लगी। वे घूमकर उधर से इशारे करने लगे। अजीब ज़बरदस्ती थी। मैंने घुटनों पर साड़ी की सलवटों को सीधा कर पल्ले को सँवार लिया, पर उठी नहीं। पति के प्रति ये मेरा मौन किन्तु खुला, पहला प्रतिकार था। 

"और सुनाइए भाभी! कैसा चल रहा है...?" मेघा ने अपनी हथेलियाँ मलते हुए फिर पूछा। 

मैं... मेरा...कैसे क्या…।

 

मैं उसे अपने जीवन की ऊब के बारे में क्या बताती? सच कहूँ तो मैं हड़बड़ा गई थी। फिर भी हिम्मत जुटाकर कुछ बोलती लेकिन पति की आवाज़कला, हरिअपमेरे कान खींच गई। मेरे भीतर डर का एक थरथराता हुआ दोलन उठा और अनचाहे आन्दोलन में बदल गया। धड़कनों की गति ने समय के उस टुकड़े को भी तरंगित कर दिया, जिसमें मेघा मेरे साथ थी। 

 

"भाभी, आपको बदलना है साड़ी...?" मेघा ने मुझसे पूछ लिया। जैसे वह मेरी बातों में शामिल थी। मैंने भी ना में सर हिला दिया। 

"देन जस्ट इग्नोर एंड एन्जॉय।" मैं चकित थी। इग्नोर! वो भी अपने पति परमेश्वर को?” 

"कलाss, सुना नहीं?"  

 

अपने नजदीकी स्नेहिल जनों से घिरे बेबी के पापा अब तक पूरे रुआब में आ चुके थे सो अकड़े मेरे सामने खड़े थे। लड़ने की जगह मौन हो जाना मैंने अपने पिता से सीखा था। बचपन में मैंने उन्हें कहते सुना था कि,"प्रश्नकर्ता जब उत्तर पाने को छटपटा रहा हो उस वक्त तुम मजबूत मौन धर लो, बस काम हो जायेगा।" सच में कभी-कभी मौन बड़ा बेतुका और अभद्र होकर प्रकट होता है।

 

हिंदी चेतना में 

"क्या है धीरज भाई! लीव इट यार! भाभी जब इन्हीं कपड़ों मेंकम्फर्टमहसूस कर रही हैं तो रहने दो न!  पीछे क्यों पड़े हो? अगर साड़ी बदलना इतना जरूरी है तो भाभी की साड़ी आप… !

हा हा हा करते हुए मेघा ने इनको बाहर की ओर धकेलना चाहा। अब मेरी धड़कने अस्थिर होने लगीं थी। स्त्री के दृढ़ रूप को देख मेरे पति भी रहे थे और मैं भी। लेकिन मेघा की गंभीर मुखमुद्रा, आत्मचेतना से भरी आवाज़ सुनते हुए एकाएक मेरे बदन में झुरझुरी के साथ कंपन हुआ और मुझे अपने सर का बोझ उतरता हुआ-सा महसूस होने लगा। आँखों में ललछौंहीं शाम झूम उठी।ऊबते-चूबते हृदय में सागर जैसी प्रशांति!मैंने दो मिनट के लिए आँखें मूंद लीं लेकिन उनकी परछाईं का दबाव मुझे बराबर महसूस हो रहा था। मेघा ने बेबी को मेरी गोद से उठाया तो झटके से मेरी आँख खुल गयी। मैंने मंडप के नीचे बैठे नितेश को घूमकर देखा। उसके मन की कामायनी गमक से घर का माहौल गमक रहा था।

"अचानक मुझे इतना खुशनुमा! कैसे लग सकता है? लेकिन लग तो रहा था।" मैंने खुद से पूछते हुए पति की ओर देखा। अब की वे बाहर जाते हुए दिखे। मैं परस्थितियों के अनुसार खुद को संतुलित करने का गुणा-भाग लगा ही रही थी कि चाची की भर्राई आवाज,"धीरज की दुल्हिन! कहाँ है?" सुनाई पड़ी। मैं अपना दुःख झटककर उठने भी लगी थी लेकिन मेघा ने उठने नहीं दिया। 

 

"मम्मा! आप तो नाम से पुकार सकती हो! इतना प्यारा नाम है भाभी का!"

"हाँ हाँ क्यों नहीं। कला, क्या सोच रही हो? जल्दी से आओ,नितेश की आँखों में काजल लगाओ आकर! वैसे ही देर हो चुकी है।

चाची ने डिबिया मेरी ओर बढ़ा दी। मेरा मन हुआ कि नितेश से पहले मैं मेघा की आँखों में काजल की एक महीन रेखा खींच दूँ।स्त्री की दृढ़ता भरी कजरारी आँखें!मेरे भीतर की स्त्री अब हल्की हो चुकी थी सो एकाएक उसने उजाले की ओर छलाँग लगा दी। पंख फैलाकर उड़ जाने का मेरा भी मन हो रहा था लेकिन मैं अभी भी कसे जबड़े और झुके कंधों के साथ नितेश की आँखें आँज रही थी। मेरी बिटिया को गोद लिए मेघा, नितेश को छेड़ रही थी।देख ले भाई! तेरी बीवी को खाना बनवाने के लिए दिल्ली ले जाऊँगी।पर मुझे कसा-कसा देखकर वह फिर मुझ से बोली।

 

क्या हुआ कला भाभी? अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। तन को मन का साथी बनाने में थोड़ा समय लगता है। आगे से अपने आप को थोड़ा महत्त्व दोगी तो दोनों को एक साथ पकड़ सकोगी।” 

 

मेघा ने मेरी पीठ पर धौल जमाया और बिटिया को मेरी गोद में उतारते हुए स्नेह से मेरे कंधे मसक दिए। मैंने बेबी को अपने गाल से चिपकाया तो लगा जैसे किसी ने ओस से भीगा ठंडा फाहा मेरे गालों पर रख दिया हो। गाल बेबी के ठंडे थे या मेरे, नहीं पता किन्तु मुझे लगा बहुत अच्छा-आरामदायक।

अपनी बेबी को मैं मेघा की तरह बनाऊँगी। खूब पढ़ाऊँगी और सही वक्त पर सही बात बोलना सिखाऊँगी।"

कुछ कहा भाभी?”

नहीं, बस बेबी….!अपनी झेंप छिपाते हुए मैंने मेघा को देखा। वह एक पोस्टर हाथ में लिए कहीं जा रही थी। पोस्टर पर,"नैना परिणय नितेशलिखा था।

"मेघा, ये क्या किया तुमने? ये तो हमारी परंपरा के घोर बिरुद्ध में है। अपने यहाँ पुरुष का नाम ही आगे रहता है।" मैंने मेघा के कान में हड़बाहट कर फुसफुसाया। सोचकर कहीं हँसी-खुशी के बीच कोई उसे डाँटने न लगे।

 

"नहीं भाभी! गौरी-शंकर,राधा-कृष्ण सीता-राम!" पुरुष नहीं, स्त्री का ही नाम आगे रहता है। आपने शायद पढ़ा नहीं ठीक से ?" मेघा ने मुस्कुराते हुए कहा।

 

मैं लोगों के चेहरे पर आते-जाते रंगों के बीच मेघा की खुशी को अलग से नोटिस कर पा रही थी कि किसी की आवाज़ आई,”बारात चली गयी।” 

मतलब मेघा की नई परम्पराओं के साथ?” मैंने खुद से पूछा और खुद ही मुस्कुरा पड़ी।

***




 पत्रिका समावर्तन में प्रकाशित २०२२  



Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५ -०२ -२०२२ ) को
    'तुझ में रब दिखता है'(चर्चा अंक -४३३२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. अनीता जी बहुत धन्यवाद आपका!!

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  2. बहुत सुंदर कहानी, अंतर्मन को छू गई

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  3. बहुत ही अच्छी कहानी

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  4. आप सभी आत्मीय साहित्यकारों का धन्यवाद!!

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