असमानतामूलक समाज में सहजीवन की चाह

 

                                                                                        

  जेंडर असमानतामूलक समाज में अवधारणाएँ निर्धारित करते हुए— स्त्री-पुरुष को सहजीवन, सहयात्री, प्रेमिल साथी के रूप में न देखते हुए, एक-दूसरे का विरोधी बताया गया। विरोध ऐसा जो कभी सुबोध न बन सका। कभी भी कटुता की वल्गाएँ किसी ने ढीली छोड़ी ही नहीं। ऐसी स्थितियों में एक बार जब विरोधी भाव पनप गया हो तो सद्भावना को प्राप्त करना दुष्कर होता है। फिर चाहे व्यक्ति हो, वस्तु हो या कुछ भी…। 

विरोध में निर्माण की उम्मीद करना समुद्र में नदी खोजने जैसा उपक्रम ही है।

     प्रकृति अपने प्रत्येक उपादानों में नर-मादा की परिकल्पना करते हुए, यथार्थ को बुनती है। नैसर्गिक हरी आँख नर-मादा में कोई भेद नहीं करती। प्राकृतिक निर्मितियों में सहजता से जीवन का आवाहन और विसर्जित होने का नाम ही संसार के साथ तादात्मीय भाव है। मनुष्य प्रकृति का अभिन्न साथी है। ऐसी सुंदर सृष्टि के निर्माण में सहभागी स्त्री-पुरुष को विध्वंस के मुहाने पर फिर किसने बैठा दिया ? किसने उन्हें एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया ? प्रश्न बार-बार उठते रहते हैं, और उठते रहेंगे। 

चाहे स्त्री-भूमिका के पैरोकार कुछ भी कहते आ रहे हों या अब पुरुष पीड़ा के लिए चिंतित, चिंतक …। 

   वह काल कैसा विस्मयकारी और समतामूलक रहा होगा जब पृथ्वी पर जीवन को देखा गया होगा। नदियों की सरसराती धाराओं ने धरती की आत्मा को ठंडक पहुँचाई होगी। समस्त वन प्रान्तों, पहाड़ों, ढूहों, ऊसर-धूसर की ख़बर लेकर जब सरिताएँ सागर तक पहुँची होंगी…! तो कैसे सागर ने अपना दिल खोल कर उन्हें स्वीकारा होगा..! कवियों-लेखकों ने सरिता-सिंधु को स्त्री-पुरुष के प्रतीक में खूब रचा है। व्याख्याकारों ने दोनों की गरिमा-लघिमा को अपने तईं उद्दात्त चित्त से खूब-खूब बाँधा-छोड़ा..। जहाँ सागर को अहमी कहा गया, वहीं सरिता को अबला और दुखियारी बताया गया। बिना ये परवाह किये कि सरिता-सिन्धु दोनों ही अपनी-अपनी तरह से शक्ति-संपन्न घटक हैं। और साथ मिलकर भी अलग रहने की दोनों की अपनी नियति है। उनकी अलग सत्ताएं हैं। अपने आकार-प्रकार में दोनों महत्वपूर्ण होते हुए अपनी भूमिकाएँ अलग-अलग निभाते हैं। नदी हिमालय का घर छोड़ती है तो दिल में समुद्र को लेकर ही अनथक दौड़ती है। सागर अपनी तमाम खारी सत्ताओं के बावजूद नदियों के जल से आचमन कर थोड़ा-सा मीठापन हासिल कर नदी का मान रखने का प्रयास करता है।

  मेरी ही एक कविता है– हर स्त्री में होता है / टुकड़ा भर पुरुष / हर पुरुष में होती है / टुकड़ा भर स्त्री..! यानी स्त्री-पुरुष दोनों अविभाज्य हैं। दोनों के होने में दोनों समाहित हैं।

    जब दुनिया की अवधारणा ही युगल है तो स्त्री-पुरुष को अलग-अलग वर्चस्ववादी शक्तियाँ हासिल करने को क्यों उकसाया गया? क्यों उसे एक-दूसरे का सुहृदय बनने में मदद नहीं की गयी ? जबकि होना ये था कि जिस तरह सृष्टि के रचयिता को सम्मान से देखा जाता है, उसी तरह स्त्री-पुरुष को देखा जाना चाहिए था। सराहा जाना चाहिए था। सम्मान दिया जाना चाहिए था क्योंकि सृष्टि-सृजन में इन दोनों की भूमिकाएँ भी अपने इष्ट की तरह अहम् हैं।

    लेकिन साथ-साथ जीवनयापन करने वाले स्त्री-पुरुषों ने कबीलाई सभ्यता को ज्यों-ज्यों छोड़ना प्रारम्भ किया, त्यों-त्यों पुरुष के भीतर जो वर्चश्ववादी प्रवृत्ति थी, जिसके द्वारा वह शिकार कर अपना और अपनों का भरण-पोषण करता था, स्त्री पर ज़ोर आजमाइश करने लगा। 

बात यहीं से बिगड़नी शुरू हुई तो बिगड़ती ही चली गयी…...। 

    स्त्री को जितना सताया गया, वह सुप्त ज्वालामुखी की तरह, उतनी ही विद्रोहीपन से भरती चली गयी। जो ऊपर से दिखने में डरी-सहमी ज़रूर दिखती रही मगर अंदर-अंदर धधकती रही। आज का समय जहाँ-जहाँ कालापन लिए दिख रहा है, वहाँ स्त्री के भीतर ठंडी पड़ी ज्वालामुखी के कोयलों की कालिख़ है। इसे क्रिया की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप समझा जाए या बदले की नियत से…विद्रोही नतीज़े पूरे साज़-ओ-सामान के साथ सामने आने लगे हैं। 

   छोटे-छोटे विरोध जो दाम्पत्तयी तकरार में आती थीं, उसमें पहले दरारों पड़ीं,अब वहीं दर्रे खाइयाँ बन चुके हैं। जिन्हें पाटना आसान नहीं।

   वक्त के साथ-साथ पुरुषों के द्वारा सताई गयी स्त्री पक्ष को मजबूती प्रदान करने के लिए चिंतित—चिंतक, विचारक, सामाजिक कार्य कर्ताओं और सरकारों के द्वारा मजबूत हस्तक्षेप किया गया। स्त्री-पुरुष के बीच की दूरियाँ उस पहल से मिटी नहीं बल्कि जातीय दुश्मनियाँ गाढ़ी होती चली गईं। आधुनिक समय में स्त्री-पुरुष साहचर्य को छोड़ युद्धरत दिखने लगे हैं। 

   आज न स्त्री को पुरुष के साथ की जरूरत है और न ही पुरुष को स्त्री की सहभागिता की तमन्ना है। दोनों पक्ष स्वयंसिद्धा की अहमी कवायद में तन-मन-धन से तत्पर हैं। जबकि इतिहास गवाह है जब-जब दोनों एक-दूसरे के बारे में सोचते हैं, समर्पित होते हैं तब-तब सामन्यजस्य भरे सुंदर समाज की संकल्पना पूरी हुई है। स्त्रियों पर रीति-रिवाज के नाम पर लाद दी गयी सती प्रथा, पर्दा प्रथा का उन्मूलन कुछ समाजसेवी पुरुषों के द्वारा ही किया गया। तो पुरुष सर्वदा अनैतिक और क्रूर कैसे सिद्ध हो सकता है। 

   आधुनिक महानगरीय या अन्य जो एकल जीवन यापन का संज्ञान रखते हैं—वे स्त्री-पुरुष भूल रहे हैं कि—सेरोगेसी, गोदनामा, आईवीएफ तकनीक आदि से एकल माता-पिता बनकर वे संसार को जीतने निकले ज़रूर हैं लेकिन वे इस राह पर चलते हुए बहुत कुछ गंवा रहे हैं। अगर नहीं, तो उनसे कोई पूछे कि उनके अपने पाँव के नीचे से धरती अगर छीन ली जाए या सिर से आसमान का साया उठा लिया जाए तो भी क्या वे जीवन को सहजता से जी सकेंगे ? अगर नहीं… तो वे एक शिशु (जो भविष्य में एक स्त्री होगी, एक पुरुष होगा) की दरकार को क्यों नहीं समझ रहे हैं? उस नवजात की मनोस्थिति को दरकिनार कर अपने मनमाने अस्मिताबोधक कोलाहल में ही उसे क्यों पाल रहे हैं ? जबकि किसी भी एक हाथ में शिशु का बड़ा होना, क्या दूसरे हाथ की गुनगुनाहट की भरपाई कर सकेगा ? क्या इस क्रूर कृत्य से मानसिक विकलांगता पैदा नहीं होगी…? क्या आगे चलकर विकृत मन वाले स्त्री-पुरुष से ये समाज असुंदर न होगा?

   आधुनिक माता-पिता के आपसी मुखालफ़त के शिकार बच्चे कैसी-कैसी मानसिक बीमारियों की चपेट में आते जा रहे हैं। जो पचास साल पहले इक्का-दुक्का कहीं सुनाई पड़ती थीं, आज हर तीसरे घर में एक बच्चा ऑटिजम का शिकार मिल रहा है। 

    लेकिन विगत सदी से आज तक समाज में जो जिस पक्ष का सहगामी हुआ, बढ़ा-चढ़ाकर सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए उतारू हो गया। एक-दूसरे को आक्रोशित, खूंखार दिखाने के लिए दोनों पक्षों ने तथ्य खोजने-जुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक तरफ़ रोटी-कपड़ा-मकान की जुगाड़ में जुटी दुनिया में अस्मितामूलक घमासान उठ खड़ा होना लाजमी था अगर उसे मानवतापूर्ण अस्मिता तक ही समझा जाता। उसे बर्बता में तब्दील न होने दिया जाता तो इस पहल की महत्ता अधिक होती।

   स्वाभिमान रहित व्यक्ति कहीं का नहीं रहता—न घर का न घाट कापर जिस मंशा से किसी बात को आरम्भ किया जाता है, उसी गरिमा से यदि अंत होता तो उस कार्य को सदियाँ याद करतीं। व्यक्ति का अखंडित व्यक्तित्व ही शोभाशाली होता है। स्त्री-पुरुष दोनों ही अपनी पूर्ण स्वतंत्रता में जीवन-यापन करने के अधिकारी होते हुए भी उन्हें प्रेमिल साझापन के साथ स्वामित्व मयस्सर नहीं हुआ। 

     बात फिर से वहीं आकर ठहर जाती है कि— आज का बच्चा (बच्ची ) कल का नागिरिक बनेगा। ये बात हमें मालूम भी है मगर स्वतंत्र निर्मित और स्वाभिमानी सहभागिता, माधुर्यपूर्ण साहचर्य की बात, उसे बताये कौन? कौन उसे समता का रास्ता अख्तियार करने की सीख दे..? जब दोनों पक्ष तलवारें लिए रण में डटे हों…!

  आज भी वैदिक काल की तरह स्वाभिमानी, मानवीय, समतामूलक समाज की संरचना हो सकती है। शर्त बस इतनी-सी है— ऐसे समाज की निर्मिती में अखंडित व्यक्तित्व के धनी माता-पिता जोअहम् ब्रह्मास्मिजैसे महावाक्य का उद्घोष कर भी सकें और अपनी औलाद को सिखा भी सकें, की संख्या बढ़नी अगर समय रहते शुरू हो जाए तो…। क्योंकि एक अखंडित जीवन ही दूसरे जीवन को ससम्मान अपना सकता है। दूसरे के भले के लिए सोच सकता है। खैर!

     सार्वभौमिक मान्यता है—कोई भी कार्य अन्यथा नहीं जाता। जेंडर इक्वलिटी के लिए किये गये कार्यों के परिणाम स्वरूप सुधार के रूप में कुछ मुठ्ठीभर स्त्रैण रोशनी हमारे हाथ आई ज़रूर मगर दुखी और सताई हुई स्त्रियों की लाम की लाम, अभी भी स्वतंत्र अस्मितामूलक उजाले की वाट जोह रही हैं। उन तक वह विवेकपूर्ण नजरिया नहीं पहुंच सका जिसमें वे ये जान सकें कि स्त्री होना ही मनुष्य होना होता है और पुरुष  उसका दुश्मन नहीं, सहगामी है। 

   अस्मितामूलक लड़ाई के मद्देनज़र स्त्री को अपनी देह की स्वतंत्रता से ज्यादा वैचारिक सम्पन्नता बढ़ाने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए।  

   स्त्री हो या पुरुष हमेशा विक्टिम कार्ड खेलने से बचना चाहिए। हाशिये पर पड़ी न स्त्री अच्छी लगती है और न ही पुरुष। कमज़ोर मन या दुस्साहसी प्रवृत्ति के स्त्री-पुरुष के प्रति समाज में जो सबल है— फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष आगे बढ़कर उनका हाथ थाम लेना चाहिए। महानगरों की मतलबी छाया से दूर गाँवों-गिरांव में आज भी अँधेरा चुगती औरतों की कमी नहीं है। वतर्मान प्रकाशित व गतिशील समय की स्त्री भी पितृसत्ता की उसी पुरानी धुरी पर अटकी, तड़प रही है, जहाँ सदियों से वह अटकी आ रही थी। 

   ऐसे विप्लवकारी समय में— स्त्री होने के नाते विपरीत जीवन में झांकने की कोशिश कर मैंने जोख़िम भरा दुस्साहस का कार्य तो किया, जिसे पूरे मन से कर लिया गया है। पुरुष संवेदना या पीड़ा पर आधारित दो कथा संकलनकाँपती हुई लकीरें”, “सहमी हुई धड़कनेंजब से प्रकाशित हुए हैं, लगातार लोगों की मौखिक-लिखित प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं। जो मेरे साहित्यिक मनोबल के लिए संबल का काम कर रही हैं।

   ख्याल ये भी आता है कि साहित्य में मेरे इस कार्य को कैसे देखा जा रहा होगा, नहीं पता, लेकिन अपनी इस पहल को मैं स्त्री-कौम के हित में ही देख रही हूँ। मैंने इस कार्य को करते हुए– किसी स्त्री के भाई, पिता, पुत्र, मित्र की पीड़ा को रेखांकित कर, उसे संबल मिलेगा, की कामना की है।

    पीड़ा, सुख की तरह नहीं होती। सुख छिपाने से भी मन संपन्न बना रहता है और बताने से भी। लेकिन पीड़ा को बे-पर्दा करने से ही वह विपन्नता को प्राप्त होती है। और छिपाने से बलवती....। ऐसा मेरा अपना मानना है। इसी मान्यता के मद्देनजर पीड़ा के क्षय के आलोक में मैं पुरुष-पीड़ा की ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकी। 

   'परहित सरिस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई

    उक्त पंक्तियों का भावार्थ– दूसरों का भला करना ही धर्म है। यही सत्य, दया, करुणा, क्षमा और धैर्य है। इन्हीं गुणों के द्वारा व्यक्ति दूसरे का भला कर सकता है। लेकिन वर्तमान समय में एक अलग तरह की बहस छिड़ चुकी है। 

    माना कि अत्याचारी दंड का अधिकारी होता है। होना  भी चाहिए लेकिन जिन्होंने पितृसत्तात्मक पिच ही छोड़ दी हो, जिनका सहजीवन ही उद्देश्य बन गया हो, जो इंसानियत के नजदीक पहुँच चुके हों…। उनके प्रति कटुता रखना उचित नहीं। 

   आधुनिक समय के स्त्री-पुरुष न तुलसी को मान रहे हैं और न ही कबीर को। वे स्वयं ही अपने भाग्य विधाता बन बैठे हैं। ये भी ठीक होता अगर अपने तक ही सीमित रहते। 

   हाल ये है— आज की स्त्री अपनी नानी, परनानी, दादी, परदादी, माँ सभी की घुटन का बदला, उस आदमी से लेना चाहती है जो उसका पति है, प्रेमी है। एक माँ अपनी पुत्री को पुत्र होना सिखाती है, पुत्र की तरह रहना सिखाती है। क्या स्त्री की गरिमा इतनी क्षीण हो चुकी है जो वह पुरुष हो जाना चाहती है ?

    जबकि आज का युवापुरुष बदलाव की दिशा में बढ़ चला है। जो अपनी पत्नी- प्रेमिका से कहता है– तुम काम करो, जहाँ जाना चाहती हो जाओ, जो पहनना चाहती हो पहनो, जिससे मिलना चाहती हो मिलो  लेकिन समय से घर लौट आओ। क्यों…. क्योंकि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। पुरुषों के इस बदलाव पर स्त्री हँसती है, उसकी खिल्ली उड़ाती है। 

 

पुरुष को ढपोरशंख न समझते हुए उसे अपनी बात खुलकर कहने का अवसर देना होगा। चूँकि स्त्री सृष्टि के केंद्र में हैं इसलिए उसकी जवाबदेही ज्यादा बनती है।

 

   अपनी अभिव्यक्तियों में ठोस पुरुष अब–जब कोमलता सीख रहा है तो स्त्री द्वारा उसकी कोमल भावनाओं की चिंधियां कर नजरअंदाज किया जाना कितना सही है? पुरुष की क्रूरता का एक ही राग अलापना कहाँ की बुद्धिमानी है। माना कि पुरुषों ने स्त्रियों के ऊपर कहर कम नहीं ढाहे हैं लेकिन जो सरल हैं, बदलाव के आकांक्षी हैं, उनके साथ गलत होते देखकर किस को बुरा नहीं लगेगा ?

 

    प्रकृति की संरचना युगल है। उसमें घात लगाकर एकल मदर-फादर की अवधारणा मनुष्यता के लिए ही घातक  नहीं अपितु समस्त पृथ्वी-लोक के लिए विध्वंसक है। अनुकरणीय समरसता और सद्भावना को ही बना रहना चाहिए। 

 

हिंसक, हिंसक होता है, वह न स्त्री होता है और न ही पुरुष होता है। इस प्रवृत्ति से दोनों को बचना होगा। नहीं, समय बहेलिए का तीर अलग पहचान न कर सकेगा, तीर छोड़ देगा।

 

    महत्वपूर्ण ये नहीं कि स्त्री कितनी बाग़ी बनकर अपना होना चरितार्थ करे। और पुरुष अपनी कौम की गलतियों का ठीकरा अपने सिर पर लेकर, कितना बेचारा बनता फिरे। महत्वपूर्ण ये है कि दोनों अपनी सहभागिता के साथ जीवन के प्रति नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए, स्व सहमति से अपनी पीढ़ियों को सम्मानित ढंग से आगे बढाये, उनमें ज्ञान और कौशल का विकास करें, उनकी प्रसंशा करें जो उनके साथ हैं, दूसरे के कार्यों के प्रति रिवार्ड देने की आवश्यकता पड़ने पर रिवार्ड दें। क्योंकि लोकतान्त्रिक अच्छे समाज में प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धिमत्ता का महत्व होना चाहिए। जीवन के प्रत्येक निर्णय में व्यापक दृष्टिकोण और सच्चाइयों को आमंत्रित करने की क्षमता का आवाहन स्त्री-पुरुष दोनों को करना आना चाहिए। परिवार में स्त्री-पुरुष के द्वारा सम्मानजनक, सहिष्णु, दूसरों को समझने के प्रति उदारता को प्रोत्साहित करना होगा। पूर्णसत्य से ज्यादा अहम सुलझा हुआ नजरिया होता है, इसे हर संभव विकसित करने की ओर स्त्री-पुरुष दोनों को साथ मिलकर, साथ चलकर, साथ-साथ विचार-विमर्श कर उचित नतीज़ों पर पहुँचना होगा। तभी अस्मितामूलक विमर्शों के उद्भव के साथ जीवन का असली मकसद पूरा हो सकेगा। 

 

    समाज के केंद्र में स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी सहमतियों के साथ विविधता से अपनी भूमिकाओं के प्रति जब सजग होगा, तभी वह एक-दूसरे के महत्व को समझ सकेगा। भारतीय स्त्री-पुरुष को आधुनीकरण में घुल-मिल रहे पाश्चात्यीकरण के अंतर को भी समय रहते समझना होगा। चेतनाशूंय क्रियान्वयन के आलोक में अखंडित आनंद की चाहना बेमानी है। मशीनी विकास मन की आद्रता को कहीं पूरी तरह सुखा न डाले…? इसकी चिंता लाजमी है।

 

   संसार की अभ्यर्थनाओं में स्त्री-पुरुष दोनों ही श्रेष्ठ हैं। वे दोनों विपक्षी नहीं, सहगामी हैं। एक दूसरे के दुख-दर्द को महसूस करना ही मनुष्य होना है। इस बात को दोनों को समझना होगा। क्योंकि हाशिया दोनों के रहने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं।

 

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