अँधेरी कारा
नारी की नीरव अँधेरी कारा में
रूढ़ियों की अल्पनाओं में फँसे
उसके विलगित मन को
उबारने की जिद्दोजहद में
चाँद आज खुद आया है
उजाला भरने
अँधेरे में लिप्त अस्तित्व हीना
चौधिया गई पाकर खुद को उजाले में
अधेरी कोठरी में जन्मी स्त्री
पूछ बैठी अबोले होंठों से ,
क्या ये भी मेरे जीवन का हिस्सा है
पुरुषों की जमात से कुछ लम्हे
चुरा कर लाने वाला चाँद मुस्कुराया
खुशी की चमकती कोर देख
स्त्री रूपी वस्तु ,खिल उठी
पीतल की थाली
चमक उठी फूल की कटोरी सी
सिर्फ वस्तु समझी जाने वाली स्त्री
तरस गई थी अपने ही अस्तित्व से
रु-ब-रु होने के लिए
जिसने जो बनाया
वह बनती चली गई
मूक बधिरों की तरह
ईंट के ऊपर रखी ईंट
स्त्री ने देखकर आकाशी चाँद
जल्द ही बना लिया
अपना चाँद
उस अँधेरी कारा के लिए
जो मिली थी उजाले की गोद में
अहिल्या को |
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