सुनो बसंत !
सुनो बसंत
तुम कहाँ से आते रहे हो
हर बार इतनी ठंडी जमीन पर
अनंत समय से
शिशिर के जाने के बाद
तुम्हारी मादकता में भूलकर
करते हैं सभी रसपान
लेकिन मेरी आँखें
जब खोजतीं है तुम्हें हजार-हजार
टहनियों पर
न जाने मिलजाता है
सूखे से भरा खेत कुनवे के उदास चेहरे में
और मैं लग जाता हूँ पानी की जुगाड़ में
भूल कर तुम्हें
हे बसंत !!
मैं खोना चाहता हूँ तुझमें
इसका उदाहरण
मेरी उदास बोझिल हँसी
जिसे मैंने टांग दिया है
करील के काँटों की खूंटी पर
तुम्हारी खोज में
कभी-कभी चिपका लेता हूँ
अपने शुष्क होंठों के
किनारों पर सुविधानुसार
प्यारे बसंत !!
मैंने सुना है कि तुम अपने ओज से
भर देते हो ठूँठ में भी जीवन
उसमें भी उभर आतीं हैं
कलियाँ,पत्ते ,फूल और काँटे भी
फोड़ कर कठोरता
फिर क्यों बिसार दिया तुमने
मेरा हृदय-ठूँठ
जिसमें नहीं खिली है एक भी
बसंती कली
बसंत आने के बाद भी
आज तक क्यों ?
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