भीगती हूँ मैं
भीगती हूँ मैं!
बिना बरसात के भी
मन की गहराइयों तक
आये दिन
कभी-कभी लगातार
कभी-कभी लगातार
जब देखती हूँ छोटी-छोटी आँखों को
झुर्रियों का भार उठाकर
दो निवालों का इंतजाम करते
चौराहों पर
चौराहों पर
सन्नाटे की आगोश में सिसकते
उन बच्चों को देखकर भीगती हूं
जिनके विरोध के बावजूद भी
दिया जाता है नशा
तरह तरह का
और जब वे हो जाते हैं आदी
नशे के
तरह तरह का
और जब वे हो जाते हैं आदी
नशे के
तब तड़पाया जाता उन्हें
नशे के लिए
नशा देने वाले जानते हैं
तड़पन की कीमत
नशे के लिए
नशा देने वाले जानते हैं
तड़पन की कीमत
नशेड़ी बच्चे करते हैं उस तड़पन में
वे सारे काम
जिससे हो जाती है शर्मसार
जिससे हो जाती है शर्मसार
इंसानियत
मैं भीगती हूँ देखकर
खून के उन धब्बों को
जो किसी चिड़िया के स्वयं का जीवन
बचाने की जद्दोजहद में
निकल कर गिरा होगा जमीन पर
उसके नाज़ुक परों से सटे
शारीर से
शारीर से
मैं भीग-भीग जाती हूं
हवाई अड्डे पर हाथ हिलाते
उन बूढ़े बेबस दम्पत्ति को देेखकर
जिनको छोड़कर जा रहा होता है
उनका कोई बहुत अपना
उनका कोई बहुत अपना
उनसे दूर
हां कभी-कभी भीगती हूँ मैं
सावन की सुरमई बरसात में भी
लेकिन ऐसा होता है
ना के बराबर
जब से छोड़ा है हाथ
बचपन ने।
ना के बराबर
जब से छोड़ा है हाथ
बचपन ने।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (06-07-2020) को 'नदी-नाले उफन आये' (चर्चा अंक 3754)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
सार्थक और सामयिक सृजन।
ReplyDeleteसावन में भींगने का मजा ही अलग है। खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteसमय बहाव में इंसान बहुत कुछ ऐसा देखता है जिसे देखना स्मृतियों में रह जाता है चाहकर भी उन्हें भुलापना बहुत मुश्किल जोता है .मन उन यादों में भीगता रहता है....निशब्द करती अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteसार्थक सृजन
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