देखतीं रहती हैं

कभी देखा है दीवारों को

मुस्कराते हुए
वे खड़ी हैं साधे मौन सन्नाटे में तब से
जब से मानव का पुतला सभ्य हुआ है 
तब से लेकर आज तक 
दीवारों ने ही ढकी है बिना शर्त
हर उस चीज को जो रहना चाहती सुरक्षित
नारी की अस्मिता 
बूचड़-खाने की मौन चीखें 
दो निवाले जुटाने के लिए गैरों के सामने 
देह परोसतीं बेबस लाचार जड़वत महिलाएं को 

ये दीवारें देखतीं रहती हैं टुकर टुकर
हजारों अनदेखे उन चित्रों को भी जो रंग भरे बिना ही
मिटा दिए गये
सुनती रहती हैं अनगिनत भदेश कनाफूशियों को
स्थिरता से
तभी तो बन गया है उनका कलेजा पत्थर का
लेकिन जब-जब गूँजती है
किलकारी से उन पथरीली दीवारों में तो
उनकी सूखी छाती में भी उतर आता है दूध
खिलखिला उठतीं हैं वे सतरंगे गुलाब की तरह 
पलकों में उत्साह लिए
वे झुक झुक समेटतीं रहती हैं
घुटनों के नीचे की धूल  

तब दीवारों से घिरा आँगन खूब पसरता है
हजारों किस्से लिए सोता-जागता रहता है
नव दुल्हन सी शर्म ओढ़े 
कलेजा तो तब दहल उठता है दीवारों का 
जब वे देखतीं हैं किसी
उम्रदराज दंपति को बंटते हुए


काँपते होंठों से बुदबुदा उठतीं हैं
वे चीख चीख कर कहना चाहतीं हैं
घर के भीतर का हाल 
वे जुटाना चाहती हैं पंचायतें
और कहना चाहतीं हैं कि हम ने देखा है किसी को
बेपरवाह अपनी ज़िंदगी 
खर्च करते हुए दोनों हाथों से 
वो विक्षिप्त हो उठतीं है अबोली कराहटें सुनकर 
जो स्थिर तालाब पर काही की तरह 
लिसलिसी सी हो रही हैं
लेकिन चाह कर भी वे
उनमें त्वरा नहीं भर पातीं
सब कुछ सुनती-देखती
और महसूस करतीं हैं दीवारें
पर मजाल क्या ?
एक चीख भी आ जाए हलक के बाहर
यूं ही अनवरत खड़ी हैं दीवारें 
अपने मन में ठंडा गरम लावा लिए 
मौन ढूहे या हिमालय सी
जिन पर कहीं-कहीं दिख जाती है दूब
और कहीं रेगिस्तान |

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