ईश्वर कस्तूरी है जो हमारे होने में छिपा है

 

मनुष्य जिस धर्म में जन्म लेता है। वह छोटी-बड़ी अनेक परम्पराओं वाली ऐसी नाव होती है जो भावनाओं की उत्ताल तरंगित लहरों पर सवार हो अविचल तैरती रहती है। हम चाहे-अनचाहे अपने जीवन में उन सारी मान्य परम्पराओं का अवगाहन करते चले जाते हैं जिन्हें जिस रूप में हमारे सामने प्रोस्तोताओं ने प्रस्तुत किया होता है। हम इतने भीरू स्वभाव के होते हैं कि उनके आगे एक प्रश्न तक नहीं करते और न ही हम परम्पराओं के मूल में क्या है? को पूरी तरह जान पाते हैं। न ही हम उत्तर देने लायक होते हैं और न ही प्रश्न गठित करने की हिम्मत जुटा पाते हैं। हम तो बस उसे धार्मिक इकाई के रूप में आँख बंद कर अपना लेते हैं। हम इतने नासमझ होते हैं कि जो परंपरा हम अपनाने जा रहे होते हैं उससे फ़ायदा क्या होगा? (फायदा का तात्पर्य यहाँ आत्मिक समझ और सबलता से है।) क्या जिन बातों और मान्यताओं को हम आत्मसात कर रहे हैं, उनसे हमारा जीवन साफ़-सुथरा बन सकेगा? क्या कभी भी हमें आत्मग्लानि से मुखातिब नहीं होना पड़ेगा? जैसे प्रश्न पूछे बिना ही उन्हें अपनाकर अपना मौलिक जीवन स्वाहा कर देते हैं। भारतीय परम्पराओं में सिर्फ देवी-देवताओं को ही पूजने का रिवाज नहीं अपितु यहाँ की संस्कृति तो वृक्षों में भी ईश्वर के दर्शन करवाती है। ईश्वर की सत्ता को स्वयं महसूस कर सके हों या नहीं लेकिन उसको ढाल की तरह प्रयोग करने से हम बाज नहीं आते। ऐसा कहा जाता है कि किसी के घर की माली हालत जानना हो तो उसके घर के पर्दे देख लीजिये लेकिन यहाँ धार्मिक पर्दे देख कर भी किसी की सच्ची हालत नहीं पहचानी जा सकती है। इसे हम ईश्वरी नहीं मानवीय माया ही कहेंगे

खैर,मेरे बचपन के मन ने भी ईश्वरीय सत्ता को कैसे-कैसे स्वीकार थाउसकी एक दिलचस्प कहानी है। ईश्वर के नाम से परिचय तो तभी हो गया था जब एक ब्राम्हण कुल में जन्म लिया था लेकिन मूर्तिपूजा का विधान मेरे जीवन में आया नहीं,लाया गया था। अनेक प्रकार के फूलदार पादपों में कनेर भी एक पीला फूलदार पेड़ है जो बहुत ही आसानी से लगाया और संरक्षित किया जाता है। इस पेड़ से मेरा संबंध सिर्फ फूल लेने भर का नहीं था। या मैं इसके रंग-रूप से ही आकर्षित नहीं थी अपितु मेरी आस्था के सूत्र भी इससे बंधे हैं। हुआ ये कि हर साल आने वाले सावनों में एक सावन मेरे जीवन में ऐसा भी आया जिसके आते ही मूर्ति पूजा का आग़ाज हुआ। हमेशा की तरह गाँव की पुजेरू लड़कियाँ लॉन में लगे कनेर के पेड़ से फूल लेने आयी थीं। उन्हें फूल तोड़ते हुए देखा तो मैं भी  अपने पेड़ की धौंस जताने पहुँच गयी। उन्होंने कुछ फूल मुझे भी दे दिए। फूल लेकर जब पूजा की थाली में रखे तो न मुझे ये पता था कि एक पुष्पांजली से देव प्रसन्न हो जाते हैं मेरी माँ ज़रूर  प्रसन्न हो गयी थीं। जिसे देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता था। फिर भी मेरा मन कभी पूजा करने के लिए आगे नहीं बढ़ता। और सच कहें तो मेरी माँ ने भी कभी मुझे पूजा करने के लिए बाद्ध्य नहीं किया। हाँ पढ़ाई-लिखाई के लिए वे जरूर कहती रहती थीं। पूजा के कमरे की ओर कभी मुड़ना होता तो सिर्फ अगरबत्ती की महकघंटी की टुनटुन और मन्दिर में जलते दीये को देखने के लिए। मन्दिर में जलते दीये के मायने क्या होते हैं; इससे मुझे कोई लेना देना नहीं था। मुझे तो दीपक का झिलमिल-झिलमिल जलना लुभाता था। तब की ये बात आज समझ में आती है कि आखिर दीपक क्यों सुंदर दिखता था? समर्पण सबको अच्छा लगता है फिर चाहे किसी व्यक्ति का हो या दीपक का। खैर... 

समय की आँखें बड़ी पैनी होती हैं। उससे भला कोई बच सकता है? तो मैं कैसे बचती। उस पर भी मैं ठहरी पराये घर जाने वाला अस्तित्वहीन जीव सो एक दिन सुबह गाँव की कुछ लड़कियाँ फिर से  फूल तोड़ने आई थीं। रोज की तरह मैं भी फूल लेने पहुँच गयी। उन लड़कियों ने जितने फूल देना था; मेरी झोली में डाल दिए। ये बात पिता कहीं से देख रहे थे। बस फिर क्या था घर आकर उन्होंने एक जिंदाबाद फरमान जारी कर दिया कि कल से मैं सुबह पूजा-पाठ करके ही विद्यालय जाऊँगी। माँ ने कहा भी कि “अभी उसके खेलने-कूदने के दिन हैंकर लेगी पूजा-पाठ भी, जब समझदार होगी।” लेकिन मेरे जिद्दी पिता नहीं माने। 

मरते क्या न करते वाली तुक में माँ मुझे पूजा करना सिखाने लगी। अब प्रतिदिन के प्रशिक्षण के अनुसार देव प्रतिमा के आगे मुझे किस हाथ से आरती करना है, पूजा का सामन छूना हैकिस ऊँगली से चन्दन-वंदन का टीका लगाना है। इसी के साथ तुलसी बाबा की रामचरित मानस से जिस श्लोक का जाप,नमामि शमीशान निर्वाण रूपम....” और एक स्तुति,“जय जय जय गिरिराज किशोरी...” को पढ़ने के लिए मेरी माँ रामचरित मानस (रामायण) टिकटी (बुकस्टैंड) पर रख देतीं। राम जी वाला श्लोक याद करने में मुझे काफी समय लगा वहीँ गौरी मैया वाली स्तुति महीने दो महीने में याद हो गयी। माँ मेरी स्मरण शक्ति पर बेहद प्रसन्न हुई थीं।

मूर्ति पूजा की यादों में यदि मैं अपनी स्मृति पर और ज़ोर डालूँ तो याद आता है कि जमींदार घराने की बेटी, मेरी दादी ने भगवान का रोल इस दुनिया में क्या होता है! और मानवीय जीवन में उसके महत्व को कैसे आत्मसात किया जाता है। उसका परिचय मेरे बोल फूटते ही दे दिया था। दरअसल दादी को माँ के पहले बच्चे के रूप में पोता चाहिए था। और बिन माँगी बरसात की तरह आ मैं गयी थी। जिसे वे बदल तो नहीं सकती थीं लेकिन एक युक्ति उनको मालूम पड़ गयी थी कि बच्चों की कोरी और सच्ची पुकार को भगवान कभी अनसुना नहीं करता है। बस उन्होंने एक वाक्य “हे भगवान आपकी जय होमुझे भैया दे दो” भर की पूजा मुझसे तोतली भाषा में ही करवाने लगी थीं। मेरी प्रार्थना ईश्वर ने सुनी और प्रतिफल भी हुई दादी को नाती मिल गया उनकी वंशवाटिका कुसुमित हो उठी। फिर तो वे भाई की रक्षा-सुरक्षा की कामना करवाते हुए मुझसे प्रार्थना करवाया कभी न भूलतीं। दादी की चालाकियों से ईश्वर के नाम से परिचित तो हो गयी लेकिन पूजा-पाठ करना तो बाबूजी के कहने के बाद आठ वर्ष की आयु से जो शुरू हुआ तो दैवीय कर्मकांड का सिलसिला जिन्दगी के चालीस सालों तक अनवरत चलता रहा। 

"ज्यों-ज्यों भींगे कामरी त्यों-त्यों भारी होय" की बिना पर मेरे जीवन का कंबल भी ज्यों-ज्यों भारी होता गया त्यों-त्यों भगवान के प्रति मेरी श्रद्धा प्रगाढ़ होती चली गयी। कहने को ऐसे भी कहा जा सकता है कि सनातनी कर्मकांड मेरे जीवन का अनिवार्य तत्व बन गया था। मुझे पूजा करने की ऐसी धुन सवार हुई कि वह दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ती चली गयी। घर के मंदिर में तरह -तरह के भगवानों की प्रतिमाओं के अंबार लग गये। हफ्ते में दो दिन के उपवास और महीने में दो एकादशीनवरात्रिमहालक्ष्मी और साल के फुटकर व्रत-उपवासों के साथ गृहस्थों के लिए सबसे कठिन माना जाने वाला चातुरमासा का अनुष्ठान जो असाढ़ की एकादशी से प्रारम्भ होकर कार्तिक अमावस्या के बाद देवठानी एकादशी तक चलने वाला उपवास होता था, मैंने सुचारु रूप से शुरू कर दिया था। उस चातुर्मास के व्रती व्यक्ति को दिन में एक बार भोजन करना होता था और पूरी सात्विकता-संयम के साथ जमीन पर सन्यासियों की तरह सोना। जिसको मैं प्रतिबद्धता से पूरा करती थी। दिन-रात ईश्वर की पूजा अर्चना में गुजरने लगे थे। बदले में ईश्वर मुझे क्या दे रहा है, उसकी परवाह भी नहीं करती। क्योंकि जब हम किसी पर श्रद्धा करते हैं, तब अविश्वास के लिए स्हैथान होता कहाँ है! बस अपने नियम-धर्म के प्रति अटूट विश्वास रहने लगा था ग्रन्थों में जो पढ़ा-पढ़ाया उसी मान्यता को मैंने  कसकर पकड़ रखा था।

ऐसे घनघोर श्रद्धा भरे दिनों में एक दिन ऐसा भी आया कि सामान्य गति से चलने वाले मेरे जीवन में दुःख की बाढ़-सी आ गयी। जब ये पता चला कि मेरी माँ को कर्क रोग, प्राणहन्ता बीमारी हो गयी है। इसके बाद तो जिस मन में हर वक्त वसंत रमा रहता थाजिद्दी पतझड़ आ बैठा। पूजा-अर्चना और प्रार्थना आदि गतिविधियाँ तीव्र से तीव्रतर होती चली गयीं। दिन-रात ईश्वर से आरजू मिन्नत में बीतने लगे। बचपन में दादी के द्वारा सिखाई गई बातें पर विशवास करने को मन करने लगा थाइधर माँ का इलाज होता जा रहा था, उधर हम लोग ईश्वर से उनकी जिन्दगी की माँगना माँगते जा रहे थे।लेकिन जिस बात पर अंधा भरोसा था वो बुरी तरह टूट गया। एक दिन ऐसा भी आया कि जो माँ मेरे खून में प्रवाहित थी सब कुछ झुठलाकर ईश्वर के पास चली गयी। बस वही दिन मेरी पूजा-प्रार्थना आदि कर्मकांड का आख़िरी दिन था। मेरे डरपोक दब्बू-से मन में न जाने इतनी गहरी विरक्ति और शक्ति का भाव कहाँ से आ जमा कि ईश्वर जो करता है, वही होता है तो किस बात की पूजा। वहीं से मेरे हृदय के श्रद्धालु कोने में एक मौन आ बैठा। ईश्वर के सामने अपने लिए गिड़गिड़ाना बंद हो गया।

हमारी किसी क्रिया-प्रतिक्रिया से वो रूठ जाएगा; वह डर खत्म हो गया था। माँ के जाने के दुःख में मेरी उस चिंता का विलय हो गया था कि ईश्वर मुझसे नाराज हो जाएगा। बस एक ही बात मन में गूँजने लगी,“ऊपर वाले की मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता" तो अपनी मर्जी को व्यर्थ क्यों खोखला करूँ। क्यों अपनी लाख टके की जुबान खाली जाने दूँ!क्योंकि माँ से मिलने जो भी आता मंत्र की भाँति,"ईश्वरीय सत्ता के आगे हमारे सारे उपाय बौने हैं" बोलकर चला जाता था। इस वाक्य का असर ये हुआ कि मैंने आरती,पूजा, मन्दिर जाना बिल्कुल बंद कर दिया। उस परम सत्ता के प्रति मेरे अंतर में न शिकायत रही थी न ही जुड़ाव। कार्मिक जिन्दगी की अपनी मालिक मैं स्वयं बन गयी। जब हमारा मन अनंत की शरण चला जाता है तो शायद ऐसा ही कुछ अनचीन्हा घटित होता है। मैंने अपने मन को धार्मिक किताबों और निथोथले दैवीय कर्मकांडों से हटा दिया माँ के अस्तित्व के बिना बिखरी हुई-सी मेरी जिन्दगी धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगी। घर वालों का सहयोग तो मिला लेकिन उन्हें मेरे नास्तिक होने का डर सताने लगा। वे कहते,"आखिर ब्राम्हण कुल में जन्म लिया है...” मैं सुनकर अनसुना कर देती उस समय मनुस्मृति से ज्यादा कबीर और ललद्य याद आते जिन्होंने चीख़-चीख़ कर कहा था कि आत्मा रूपी हंस को स्वछंद विचरण करवाने के लिए मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारे की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि मनुष्य को अपने हृदय रूपी तालाब को मानसरोवर बनाना पड़ता है। और ये प्रक्रिया आरती-पूजा शंख-घड़ियाल बजाने से सम्पन्न होने से रही। इसके लिए तीक्ष्ण स्वानवेष्ण की जरूरत होती है। 

इन सब बातों को जानते हुए भी हूँ तो संसारी जीव ही न! और यहाँ हर व्यक्ति के पास दो मन होते हैं, एक डावाँडोल होने वाला और एक एकाग्रचित्त जिद्दी। मेरे पास भी दो मन थे। जब एक मन जिद्द करता कि ईश्वर ने जिस कार्य के लिए जो समय निर्धारित किया है, उसी के अनुसार वह कार्य होगा, डरो मत। जब ये बातें मन में उभरने लगती तो चन्दन-वन्दन में समय ख़राब होता सा लगता। और जब मेरा डरपोक मन का हिस्सा लोगों को सुनकर थरथराकर तरह-तरह के डर पैदा करता, तो अपने पुराने ढर्रे में लौटने का मन करने लगता। नतीज़ा ज्यादा कुछ नहीं तो मैं साँझ का दीपक जलाने लगी लेकिन ईश्वर की स्तुति गान के नाम पर बस मौन। उस सर्वशक्तिमान से न कुछ कहने का मन होता और न सुनने का। डर कर किया जाने वाला कार्य कहाँ सफल होता है! मेरी भी ये कवायत निस्सार साबित हुई और जल्द ही बंद भी हो गयी।

इस कोरोना काल में जब डर संसार का स्थाई भाव बनकर सभी को आंदोलित कर रहा है। हर ओर हाहाकारी वातावरण बन चुका है। बाहर वालों से क्या घर के अंदर भी लोग दूर-दूर रहकर बात करने लगे हैं। ऐसे दिनों में भी मेरी वो श्रद्धा नहीं लौटी।एक दिन रात्रि भोजन के बाद जब मैं घूमने निकली तो सड़क पर एक बड़ा-सा भव्य मन्दिर देखा।राधकृष्णशिवपार्वती और बालाजी आदि देवताओं की मूर्तियाँ उसमें स्थापित हैं। मन्दिर के बाहर भीतर फूलों के खूब पेड़-पौधे लगे हुए हैं। समय के अनुसार उन पर खूब रंगत भी दौड़ गयी है। मन्दिर के आगे कई एक स्ट्रीट लैम्प भर-भरकर रोशनी बिखेर रहे हैं। मेरे बचपन का प्यारा साथी कनेर भी वहीं मन्दिर के बाहर नीरवता ओढ़े चुपचाप खड़ा है। सुबह के खिले फूल कुम्हलाकर उसके नीचे बिखरे पड़े हैं और जिन कलियों को सुबह सूरज के साथ खिलना है वे कुछ-कुछ उचकी,फूलीं हुईं-सी और उमंगित लग रही हैं। मन्दिर के दरवाज़े पर बड़ा-सा ताला लटका हुआ है। मंदिर के अंदर ठाकुर जी राधारानी के साथ फूलगुलाबी पोशाक में खड़े मुस्कुरा रहे हैं। उनकी दृष्टि सड़क की ओर है। आँखों में स्थिरता और होंठों पर मुग्ध कर देने वाली पहचानी-सी मुस्कुराहट चिपकी हुई हैजो कोरोना काल के पहले जैसी ही लग रही है। 

उनको देखकर सबसे पहला ख्याल मेरे दिमाग में यही आया कि लोग असमय संसार छोड़-छोड़कर जा रहे हैं। संसार में त्राहिमाम मचा है और एक ये हैं जो अपनी मुस्कुराहट में इतने तल्लीन हैं कि जैसे कोई छोटा मनमौजी बच्चा। उनको देखकर लगा कि ना तो ठाकुर जी को मन्दिर में ताला बंद होने की ऊब है और ना ही कोई चाहत कि उनकी पूजा-अर्चना करे। इसका मतलब तो यही हुआ न ईश्वर स्वयं में सम्पूर्ण है। उनको हमारी फूलमाला की आवश्यकता नहीं। जिस किसी ने संसार में सबसे पहली देव प्रतिमा रची होगी उसने ठाकुर जी के लिए चिन्मय मुस्कुराहट की क्या खूब कल्पना की होगी। जिधर से देखो बाँकेबिहारी मकरंदमन हँसी हँसते हुए ही दीखते हैं। बस यहीं से मेरा अडोल विश्वास और मजबूत हो गया कि ईश्वर इंसान को बनाता है, इंसान ईश्वर को नहीं। हम उसे न प्रसन्न कर सकते हैं और न नाराज। हम तो अपने फायदे के लिए उसके नाम का इस्तेमाल भर करना जानते हैं। ईश्वर सत्य है जिसकी सत्ता सत्य के अतिरिक्त कुछ और नहीं। हमें कुछ करना है तो सबसे पहले अपनी पूजा करनी होगी। कहने का तात्पर्य है कि हमें अपनी ओर लौटना होगा। अपने मन के दर्पण में स्वयं को एक बार नहीं अपितु कई-कई बार देखना होगा। अपने होने का भाव, अपने भीतर जीवन का सबसे तरल और मृदुल रस लिए हुए है। उस तरलता को बनाये रखने से बड़ा और कठिन अनुष्ठान कुछ हो ही नहीं सकता। जीवन में यहाँ तक पहुँचते हुए मेरे भीतर कर्मकांड विरोधी एक महीन-सी धुन दिन-रात बजती जा रही है। जिसकी जद में मेरे घर का और कोई नहीं, सिर्फ मैं हूँ! क्योंकि मेरा विश्वास अटल हुआ है कि ईश्वर पत्थरों की मूर्तियों में नहीं है। ईश्वर कस्तूरी है जो हमारे होने में छिपा है। हमें जबरन अपनी भीतरी परतें उघाड़नी होंगी क्योंकि चीज वहीँ खोजी जानी चाहिए जहाँ वह खोई होती है। ईश्वर गलती से हमारे हाथों से हमारे ही भीतर खो गया है

***

[मन की डायरी ]

 

 

 

 

 

 




 

 

 

Comments

  1. किसी भी ईश्वर में मेरी आस्था नहीं है। जैसे आपको बचपन से पूजा करना सिखाया गया मुझे कुछ सिखाया नहीं गया, लेकिन पिता के नास्तिक होने के कारण ईश्वर के प्रति मेरा भी विश्वास बन नहीं पाया। यूँ ईश्वर के पक्ष में मैंने ख़ुद से ख़ूब सारे तर्क किए, अंततः मैं नास्तिक ही रही। मुझे तो यही लगता है कि इंसानियत होना ही एकमात्र धर्म है बाक़ी सारे कर्मकांड समाज को चलाने के लिए और गलत को रोकने के लिए ईश्वर की कल्पना कर डर बनाए गए। अब तो लोग ईश्वर की पूजा सिर्फ़ माँगने के लिए करते हैं और पाप को पुण्य में बदलने के लिए।
    अपने अनुभव और सोच से जो राह पसंद हो वही करना चाहिए। सत्य का मार्ग लम्बा था परन्तु आपको एक दिशा मिली। संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा।

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  2. आपकी प्रतिक्रिया मूल्यवान मेरे लिए | बहुत आभार जेन्नी शबनम जी!

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